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प्रस्तुत है सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी की एक कविता..........

बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु!

बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गावों बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थी फंसकर,
काँपते थे दोनो पाँव बंधु!

बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गावों बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिरभी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी सहती थी,
देती थी सबके दाँव बंधु!

बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु!

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