[हिंदी कविता में विविधता और सर्जनात्मकता की बहुलता में एक अनूठी और आदिम भावबोध की कविताओं का स्त्रीवाची स्वर विश्वासी एक्का की कविताओं में दीखता है।प्रकृति का सरल सौंदर्य, प्रकृति के साथ सह-अनुभति , और सादा जीवन का सादगी पूरित दुःख और सुख को सीधी भाषा में कहने का सधे ढंग से अभिव्यक्त करने की विश्वासी क्षमता ने मध्यवर्गीय शहरी चेतना सम्पन्न कविताओं के दौर में अलग और विशिष्ट बनाता है। भावयति में उनकी कविताएँ पहली बार लगा रहे हैं।]
बिरसो
कितनी खुश थी आजी
जब मैंने पूछा था
कान के छिद्रों में, अपनी कानी उँगली घुसाते हुए
आजी आप पाँच-पाँच बालियाँ पहनती थीं कानों में?
हँसते हुए कहा था आजी ने -अरे, नहीं रे नतिया मैं तो खोंसती थी छिद्रों में काले-सफेद साही के काँटे
वही तो थे मेरा गहना मेरे हथियार।
एक दिन आजो को गुस्सा आ गया था किसी बात पर
मारने दौड़े थे आजी को
यकायक ठिठक गये थे आजो के कदमआजी के हाथों में
साही के काँटों को देखकर।
ललकारा था आजी ने
हथियार बन गये थे साही के काँटे।
विजयी मुस्कान तैर गई थी होठों पर
दमक उठा था चेहरा।
बिरसो नाम था आजी का
सुनती हूँ गोष्ठियों में
नारी सशक्त हो रही है
याद आ जाती है आजी,
साही के काले-सफेद काँटे
और ठगे से आजो।
रुई सी खुशियाँ
रुई ओंटती वह
झुर्रियों वाला चेहरा
सिकुड़ी हुई चमड़ी
माथे पर चुचवाता पसीना
जाने क्या सोंच रही
रुई अलग, बिनौले अलग।
फक्क सफेद रुई के फाहे
उसके दाँत भी तो ऐसे ही दिखते थे सुन्दर, रुचमुच।
ठुकवाना चाहती थी वह भी
दाँतों में सोने की कील
हँसना चाहती थी खुलकर।
हाथों में चलनी ले चाल कर नदी का बालू सोने के कण बीनकर
पीनी चाहती थी अंजुरी भर खुषी।
पता चल गया गाँव के मुखिया को
लग गये पहरे।
बह गई खुशियाँ नदी की धार।
किसे मालूम था गरीब
नहीं बीन सकते खुशियाँ
काटना पड़ता है उन्हें गरीबी की फसल।रुई ओंट, कातना है सूत देना है बुनकर को।
मोटहा साड़ी पहनने की चाह बलवती हो उतर आई है आँखों में।
सोऽ़़़़़़़.... सोऽ़़़़़़़....की आवाज दे पटकती है लाठी मुर्गियों से बचाना है बिनौले को।
बोना है अगले साल फिर कपास
इकट्ठा करना है खुशियाँ
रुई की ढेर।
गाँव की खुशियाँ
कानों में तरकी
हाथों में बेरा
गले में हँसुली
माथे पर टिकुली
पैरों में घुंघरू
एड़ी तक धोती
कैसा समन्वय स्त्री और पुरुष
का
अद्धनारीश्वर की कल्पना।
हाथों में डंडा ले घूम-घूम लचकती कमर
नृत्य करते गाँव के रसिया नचकार
बनाते मानव श्रृंखलाआसमान छूने की चाह।
जब नाचते हैं झूम-झूम मांदर की थाप पर
बिसर जाते दुख दर्द।
’कठबिलवा’ की सूरत
बच्चों का रोमांच
झुण्ड में क्या बच्चे क्या बूढ़े
खुश होते रीझते, बतियाते
दुख थोड़े, सुख ज्यादा
जीवन जीते ऐसे ही
बटोरते, गठिइयाते
खुशियाँ धोती की छोर।
सपनों की भूल भुलैया
बरसता रहा पानी रात भर
खेत लबालब,गलियाँ गीली
मेंढ़क की टर्र-टर।
दुखना सपने देखता रहा भोर तक
बेटी पढ़ने जायेगी शहर साहब बनेगी नाम रोशन करेगी घर और गाँव का।
सुबह नाँगर और बैला ले
खेत जोतने चला है दुखना
बैलों के संग गोल-गोल घूमना
जैसे सपनों की भूल भुलैया।
हरी छरहरी धान की बालियाँ
सुग्गा चक्कर काटता खेतों में
उसे भी प्रतीक्षा है
धान के पकने का
धुकधुकाती है छाती
रूठ न जाये बरखा रानी
मनौती करता ग्राम देवता की।
बुरे सपने का सच होना और भी बुरा होता है
लग जाती है धान में बाँकी सूख जाती है दुधयायी बालियाँ
मेढ़क तलाशता है पानी
छिप जाता है चट्टान के नीचे
या गहरे तालाब में।
झरते रहे सपने दुखना के रातभर
ओस से भीगे।
टपक रहें हैं महुआ के
रस भरे फूल
सूखे खेत में टप-टप।
सोनमछरी
डुबकती उचकती बलखाती
लहरों से होड़ ले अठखेलियाँ करती थी सोनमछरी
चरवाहे का मन भी उमगता बहता जाता धारे के संग दूर तक
सुहाती थी आँख मिचौली
बाँसुरी की स्वर लहरी
लहरों की तान
सुरीला संगम।
नदी का किनारा
जंगल की जमीन
रोमांच से भर जाते दोनो।
किसे अंदेशा था झंझावात का
रंग बिरंगे धागों से बुना जाल
सुनहरे दाने आकर्षण और ठगौरी।
नदी का किनारा
चरवाहा और बाँसुरी
दूर तक पसरा सन्नाटा।
अब नहीं दीखती सोनमछरी
डूबती, उतराती
खो गई जाने कहाँ
किस गहराई और खोह में सदा के लिए।
मृगमरीचिका
एक आदिवासी लड़की
जन्म भर की दुत्कार
उपहास और अपमान को
पैरों तले रौंदकर खत्म कर देना चाहती है
ठेंगा दिखाना चाहती है दुनिया को
पाना चाहती है थोड़ी सी इज्जत
कर लेती है विवाह सवर्ण युवक से।
तर जाता है वह भी
अपनी अयोग्यता और बेरोजगार होने के कलंक को धो डालता है माथे से।तथाकथित पत्नी के नाम से निकल जाता है लोन
खरीद ली जाती है जमीन
बन जाता है मकान।
झूठे सुख की चाह भटकाती है बियाबान में।
उत्सवों, मांगलिक अवसरों पर
वह अप्रत्यक्ष
उसकी अप्रत्यक्षता
निगल जाती है सब कुछ।
मारपीट, छोड़ देने की धमकी
फटफटिया दौड़ाता है वह सी.सी. रोड पर
और
वह बेचारी भटक जाती है
रेगिस्तानी मृगमरिचिका में
जहाँ रास्ता तो है मगर मंजिल का पता नहीं।
जहरीला
समंदर
घहराता, बलखाता।
कतारबद्ध लोग
तैयार खड़े हैं
डूबने, बह जाने को
मैं रोकना चाहती हूँ उन्हे
पता नहीं मुझे रोकने का अधिकार है या नहीं।
अंर्तद्वन्द्व
एकलव्य
हम यह नहीं कहते
कि बाँट पायेंगे तुम्हारा दुख
तुम्हारे अंर्तद्वन्द्व को समझने का
हम दावा भी नहीं करते।
इसलिए
पूछना चाहते हैं तुम्ही से
कितनी पीड़ा हुई थी
कितना लहुलुहान हुआ था हृदय ?
लोग कहते हैं तुमने हँसते- हँसते काट दिया था अपना अंगूठा
सच बताना
क्या तुम्हारी अंगूठाविहीन हँसी
सचमुच निर्मल थी?
गोदना
रोम छिद्रों के इर्द-गिर्द
चार-चार सुइयाँ चुभाना बारम्बार
दर्द सहना होंठो को भींचकर।
क्योंकि दादी ने कहा था-अभी रोना अशुभ है।
सैकड़ो प्रहार के बाद भीआँखों से आँसू न बहना
क्या वह
मरने के बाद साथ जाने का
आभूषण प्रेम था
या
जीवनपर्यन्त कष्ट सहते रहने की पूर्वपीठिका।
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