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【अमितधर्म सिंहआज के दौर में एक ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताएँ  ग्रामीण जीवन के सुख-दुख, नाद और सौंदर्य को सादगी  और गहराई के साथ उभारती हैं।भावयति में हम उनकी कविताएँ विशाल गोयल जी की टिप्पणी के साथ दे रहे हैं।】
 
  (संघर्ष द्वारा) यथार्थ से जीतकर काेई बड़ा नहीं हाेता, सपनाें काे खाेकर बाैना जरूर हाे जाता है। बधाई भाई तुम्हारी दृष्टि कूडी के फूलों तक पहुंचती है नहीं ताे समकालीनता की नकली छवियों से ग्रस्त कविता पता नहीं कैसे कैसे ट्रीटमेंट देती इस खालिस और दमदार संघर्ष काे। साैंदर्य माैत है कुरूपता की बिना कुरूपता काे काेसे। किसी भी तरह के शक्तिमान रूपवान में सामर्थ्य नहीं अरूपवान साैंदर्य हाेने की। वैसे संघर्ष के साैंदर्य विमर्श भरे पड़े है...


साहित्य न मंच है ना माेर्चा, साैंदर्य का हर परिस्थिति में संधान है, चाहे वह संघर्ष का हाे या दमन का हाे। और साहित्य ना काेई पक्ष है जिसका विपक्ष हाेना अनिवार्य हाे और न ही यह काेई थीसिस है जिसकी एंटीथिसिस गढ़ने की फिराक में असहाय हीन सा गुस्सा लगातार रहता हाे। प्रकियाओं की पहचान न हाे सकने की असमर्थता मनुष्याें काे वर्गाें में जांत में और फिर आखिर में व्यक्तिरुप में गरियाती है। दूसराें से लड़ने का मैदान बाहर है, साहित्य खुद से लड़ने की जगह है। अमित जानता है घृणा से कैसा साहित्य लिखा जा सकता है। अमित प्यार से समझाना जानता है उन लोगों काे भी जाे उसे विचाराें या कुविचाराें की किसी खास धारा में प्रशिक्षण देने के लिए तड़फ रहे हैं...

                                        -विशाल गोयल







 (1) अनायास याद आया


अनायास याद आया

आम की गुट्ठो के लिये जिद करना

लिफाफे में चीज़ लेना

नारियल के पानी के लिए लड़ना

भाई-बहनों से ।


बुहारे गए

कच्चे आँगन में

पानी के छिड़काव की

सौंधी खुशबू

गरम चूल्हे पर

पोतने के पोच्चे की महक

याद आयी;


याद आया

सतपाल चाय वाले की

भट्टी में सुलगते

कच्चे कोयले का धुंआ

बीड़ी सुटकते

पापा की बगल में लेटकर

बीड़ी के धुएँ को

साँस से खींचना ।


चूल्हे से निकली

फूली हुई रोटी के

फाड़ने से निकली भप्पी

पावे पर मुक्का मारकर

छिती गंट्ठी की महक

याद आयी;


याद आया

भुनी हुई

भभोलन(फटकन)का

राख मिला स्वाद ।


अँधेरी गहरी रातों में

टायर जलाकर

रामलीला देखने जाना

ताड़का से डरना

राम के साथ रोना

रावण पर मुठ्ठी कसना

याद आया

अनायास ।।




(2) आदी


होश सँभालने से पहले ही

हमें डराया गया

हव्वा, कोक्को, लुल्लु से,

पाँव में जेवड़ी बाँधकर

खाट के पावे से बाँधा गया

ताकि हम एक सीमा में ही

घूम-फिर सके।


बोलना शुरू किया तो

भूत-पिशाचों

और भगवान का भय दिखाकर

हमारी अपार संभावनाओं

को नष्ट किया गया।


गली-मोहल्ले में

बाहर निकलने से पहले

बड़े लोगों की

क्रूरता के किस्से सुनाये गये;

उँगलियों पर गिनाये गये

क्रूर लोगों के वर्ग, जाति और धर्म।


बाद में हमने इसे सच पाया

तो हमारे हौंसले और पस्त हुए।


अब उस हाथी की तरह

एक कमज़ोर रस्सी से भी

बँधे खड़े रहते हैं हम,

जो बंधकर खड़े होने का

आदी हो चुका होता है।।




(3) वे नहीं जानते !


वे नहीं जानते !

किस मौसम में क्या खाना है

क्या पहनना है ।


जो उपलब्ध होता है

खा लेते हैं,

ओढ़-पहन लेते हैं ।


खाने के बाद

मुँह में सौंफ-मिसरी डालना

या औढ़-पहनकर

फैशन से चलने का तो

उन्हें ख़्याल तक नहीं आता ।



रंगों की भी

पहचान नहीं उन्हें !

लाल,हरे, गेरुए को

वे आज तक नहीं पहचान पाये;

खाकी और सफ़ेद को भी

चपेट में आने के बाद ही

पहचानते हैं ।


हाँ ! काला जरूर

हर तरफ

नज़र आता है उन्हें ।


उन्हें ये भी नहीं पता

कि वे अब

आदमी से ज्यादा

वोट और बाज़ार में

खरीदी-बेचीं जाने वाली

ऐसी वस्तुएँ हैं

जिनका अपना

मूल्य तो होता है

लेकिन वह भी

उनके अपने लिए नहीं ।


उन्हें इस बात की भी

भनक नहीं

कि ज़िन्दगी प्यार से नहीं

व्यापार से चलने लगी है ।


ज़िन्दगी के हर गणित में फेल

वे भूल चुके हैं

ज़िन्दगी और मौत का फर्क ।


हाँ !

रिश्तों की गर्माहट

और प्रेम को

वे खूब पहचानते हैं ।



                                                     

(4) बेमौत मरना...


रिश्तों की परिधि से

बाहर होते ही

मर जाते हैं हम ।


किसी के शब्द

बींधकर

मार देते हैं हमें ।


नज़र से गिरकर

दम तोड़तें हैं

अकस्मात् ।


भीतर का

"मैं" करता है

हमारी हत्या,

आत्महत्या

करते हैं हम

पलायन से ।


दिल के,

दिमाग के

तंग होने से

घुटकर

मरते हैं ।


जड़ों से कटकर

मरते हैं गुमनाम ।


सपने के टूटने,

विश्वास के चटकने

या किसी

अहसास के मरने से

मर जाते हैं हम ।


हम उस वक़्त भी

मर जाते हैं

जब बुरी नज़र

गड़ती है

किसी देहयष्टि पर ।।




(5)  मेरा डर 


अपने टूटने की दलक

घर पहुँचने के

ख़्याल से भी

डरता हूँ मैं ।


ज़बान के अनगढ़

तीरों का उत्पात

डराता है मुझे ।


किसी कहानी के

अचानक ख़त्म होने से

डर जाता हूँ मैं ।


जीवन की

एकरसता डराती है मुझे ।


नए का आग्रह

पुराने की आस्था

डराने वाली है ।


इन डरों के बीच की

निडरता डराती है ।


मैं

बुद्धि के फैलने से नहीं

दिल के सिकुड़ने से

डरा हुआ हूँ...।।




(6)  ठहरकर जीना...


सड़ जाता है

तालाब का पानी ठहरकर ।


ठहरकर

दुर्गन्ध देती है हवा ।


पेड़ पर

सड़ जाते हैं फल

न तोड़ने पर ।


सड़ जाता है

बहुत कुछ

भण्डारण में ।


मष्तिष्क में

सड़ जाते हैं विचार

एक समय के बाद ।


सड़ जाती हैं

परिभाषाएँ ,

विचारधाराएँ,

धारणाएँ

ठहरकर ।


ठहरकर सड़ जाते हैं

धर्म और संस्कृति ।


कि ठहरकर जीना

जीते-जी मरना है

सड़कर ।।




(7)  बहनें


बहनें शांत हैं

सौम्य और प्रसन्नचित्त भी;

उनके चेहरे की उजास

कम नहीं हुई

दुनियाभर की

झुलसाहट के बाद ।


बहनें

हमारे हाथ में

बाँधती हैं रक्षासूत्र;

करती हैं कामना

हमारी सुरक्षा की ।


बहनें हमारे घर में नहीं रहतीं

ख्याल में नहीं आतीं

सपने में भी कहाँ आती हैं बहनें;

पता नहीं

किस चोर दरवाज़े से

ले जाती हैं हमारी बलाएँ ।


माँ की नसीहत

पिता की डाँट

भाई की झल्लाहट के बाद भी

खुश दिखतीं हैं बहनें

हमारी ख़ुशी के लिए।


हमारी ख़ुशी के लिये

अपनी ख़ुशी

अपने सपने

अपना मन मारती हैं बहनें


बहनें हमारे पास नहीं

साथ होती हैं

अपनी उपस्थिति

दर्ज़ कराये बगैर ।


सच !

हमसे छोटी हों

या बड़ी ;

हर हाल में

हमसे बड़ी

होती हैं बहनें ।।




(8) बहुत देर तक...


बहुत देर तक

महसूस होती हैं

माँ की नम आँखें,

पिता की ख़ामोशी ।


भाई-बहनों का मूक समर्पण

घेरता है बहुत देर तक ।


बहुत देर तक नहीं छूटता

आत्मीयता से मिलाया गया

दोस्त का हाथ ।


तीज-त्यौहार पर

खलती है दिवंगतों की कमी,

कोई बिछड़ा हुआ

याद आता है

बहुत देर तक ।


किसी को देखकर

सुध नहीं रहती

बहुत देर तक ।


बहुत देर तक नहीं लौटता मैं

प्रकृति में खोने के बाद ।


बहुत देर तक

बनी रहती है

स्मृति में निंदा और प्रसंशा ।


कभी-कभार

मिलने वाली ख़ुशी

रुलाती है

देर तक ,

बहुत देर तक...।।




 (9) नींव की ईंट 


नींव की ईंट

दिखाई नहीं देती

न टकराती है पाँव से ।


ज़मीदोज़ नींव की ईंट

संभाले रहती है

इमारत को पीठ पर ।


चूँ-चिकारा तो दूर

करवट लिए बगैर

चुपचाप गलती रहती है

नींव की ईंट

इमारत के नीचे ।


नींव की ईंट होती है

तो इमारत होती है,

इमारत नहीं रहती

तो भी रहती है

नींव की ईंट ।


इमारत भले ही

नींव की ईंट का पता न दे,

इमारत का सही पता

नींव की ईंट ही देती है

इमारत के

न रहने पर भी ।।




(10)  देखो...!


देखो !

कि तुम क्या देखते हो

कैसे देखते हो

तुम्हें क्या देखना चाहिए ।


अंधेरों में

क्या दिखाई देता है,

उजालों में क्या छुपा होता है

सब देखो !


अतीत में देखो

तुम कहाँ थे

वर्तमान में कहाँ हो

भविष्य में कहाँ देखना है

अपनेआप को

ठीक से देखो !


लोग तुम्हें क्या दिखाते हैं

क्या छुपाते हैं

दुनिया कैसी दिखती है

कैसे देखती है

या तुम

कैसे देखते हो दुनिया को

आराम से देखो !


इस देखने का अंतर देखो

समानता देखो

समानांतरता देखो !


बाहर फैलती क्रूरता देखो ।

भीतर दुबकी कमज़ोरी देखो ।


एक आँख से पूर्वज

एक से वंशज देखो


इतिहास में झाँको

देखो

क्या देखा इतिहासकारों ने,

क्या देखना छूट गया


उसे तुम देखो

अपनी निगाह से,

पूरी ज़िम्मेदारी

पूरी सावधानी से...


देखो !

सबकुछ देखो

सबके लिए देखो ।।


टिप्पणियाँ

  1. आज हम जिन्दा हैं और समाज में एक अलग तरह की जिन्दादिली भी दिखाई दे रही है लेकिन असली सवाल यह है कि इस दौर में जिन्दा होने के बावजूद हम कितने जिन्दा हैं। आज समाज में चकाचैंध जरूर दिखाई दे रही है लेकिन हमारे अन्दर एक गहरा अंधकार पसरा हुआ है और जिन्दा होने के बावजूद हम पल-पल मर रहे हैं। अमित धर्मसिंह ने समाज के मनोविज्ञान को बखूबी और सहजता से पकड़ा है और सहजता से ही उसे अपनी कविताओं में स्थान दिया है। अमित भाई जब यह कहते हैं कि - दिल के, दिमाग के तंग होने से घुटकर मरते हैं या फिर जब वे कहते हैं कि - मैं बुद्धि के फैलने से नहीं/दिल के सिकुड़ने से/डरा हुआ हूँ, तो हमें हमारे सारे सवालों के जवाब मिल जाते हैं। दरअसल दिल के सिकुड़ने का असर हमारे रिश्तों पर भी पड़ रहा है, इसीलिए अमित भाई बहन पर लिखी एक मार्मिक कविता में कहते हैं कि - हर हाल में हमसे बड़ी होती हैं बहनें।
    अमित धर्मसिंह की की कविताएँ पढ़कर अपने बचपन का गाँव याद आ गया। हालांकि उनका संघर्ष अलग तरह का है और उनके संघर्ष से मैं अपने संघर्ष की तुलना करने की हिम्मत नहीं कर सकता। उनके जीवन संघर्ष की तीव्रता हम जैसे लोग ताउम्र महसूस नहीं पाएंगे। लेकिन उनसे अलग पृष्ठभूमि का होने के बावजूद उनकी कविताएँ पढ़कर उनका संघर्ष अपना संघर्ष लगने लगता है और शायद यही इन कविताओं की सबसे बड़ी ताकत और विशेषता है। इस दौर में जबकि अधिकांश कवि अपने संघर्ष को विशिष्ट संघर्ष घोषित कर चर्चित होने का हथियार बना रहे हैं, ऐसे माहौल में अमित भाई अपने संघर्ष को वर्ग विशेष का संघर्ष बनाने की चेष्टा नहीं करते। वे हौले से अपने संघर्ष को कविताओं में स्थान देते हैं। यही कारण है कि उनका संघर्ष कविता का सौन्दर्य बन जाता है। अमित भाई बिना कोई नारा लगाए जब ये कहते हैं कि-देखो सब कुछ देखो/सबके लिए देखो, तो इन कविताओं पर मर-मिटने का दिल करने लगता है।
    ROHIT KAUSHIK

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