सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ऐसी थी दोस्ती


दस वर्ष पूर्व डा. चन्द्रबली सिंह से डा. आशा शर्मा ने साम्य के डा. रामविलास शर्मा के विषेषांक हेतु यह साक्षात्कार लिया गया था। वह डा. शर्मा पर एकाग्र अंक हाल ही प्रकाषित हुआ,जिसमें वह साक्षात्कार प्रकाषित हुआ है। अंक आने के लगभग एक माह बाद डा. चन्द्रबली सिंह के दुःखद निधन का समाचार हिन्दी-जनता में निशब्द सा घुलता हुआ मिला। डा.चन्द्रबली सिंह को विनम्र श्रद्धांजलि स्वरूप भावयति में साक्षात्कार प्रस्तुत है।

डा. चन्द्रबली सिंह

-डा. आशा शर्मा
काशी विष्वविद्यालय में आयोजित पुनष्चर्या पाठ्यक्रम में भाग लेने के दोरान मैंने डा.ॅ चन्द्रबली सिंह जी से मिलने का मन बना लिया था। मैंने कार्यक्रम के संचालक डा.ॅ अवधेश प्रधान जी से सिंह जी के घर का पता ले लिया। यूं भी बनारस मेरे लिए नई जगह भी। मैं 10 जून 2001, रविवार की छुट्टी में विष्वविद्यालय से रेल्वे स्टेशन पहुंची और वहां से रिक्शे से मलदहिया चैराहा। मैंने रिक्शे पर बैठे-बैठे ही कुछ सभ्य जनों से सिंह जी के घर के विषय में पूछा तो वे अनभिज्ञता जाहिर कर चलते बने। मैं घर खोजने के उद्देष्य से रिक्शे से उतर ही रही ािी कि एक पनवाड़ी अपनी दुकान से उतर कर आया। शायद उसने अपनी दुकान से ही भांप लिया था कि मैं सिंह जी का घर खोज रही हूं। उसने मुझसे सीधे पूछा-’चन्द्रबली सिंह का घर खोज रही हैं ?‘
मैंने सिंह जी को कभी देखा नहीं था और न ही उनकी फोटो देखी थीं। मैं पहली बार उनसे मिलने आयी थी। फिर भी सके पूछने पर मेरी गर्दन उम्मीद में ’हां‘ में हिल गई।
उसने हाथ से उनके घर की ओर संकेत किया,‘आप वो जो पेड़ देख रही हैं, वहीं कोने वाले घर में चले जाइए।‘ और मैं उनके घर पहुंच गई। घर में प्रवेश करते ही पहला सामना चन्द्रबली सिंह जी से ही हुआ- ’किससे मिलना है ?‘ संकोच ओर घबड़ाहट में मुंह से निकल गया- ’श्री चन्द्रबली पांण्डेय जी से। वे हंसे और आकाश की तरफ उंगली करके बोले- ’वे तो ऊपर गये।‘ अब तक मैं संभल कर संयत हो चुकी थी- ’क्षमा कीजिए मुझे आपसे ही मिलना है।‘
’आइए।‘ लम्बा छरहरा एकदम सीधा शरीर, बिना काढ़े बाल, सीधी तीखी दृष्टि, पान रचे पतले-पतले हाइों में दबी निष्छल सादगी भरी मुस्कराहट। सफेद धोती और बनियान पहने हुए थे। घर में अकेले थे। उनकी सहजता और सरलता ने मेरी झिझक को ढीला कर दिया था।मैंने उन्हें साम्य पत्रिका की प्रति देते हुए कहा-’मुझे सामय के संपादक श्री विजय गुप्त ने आपसे मिलने के लिए कहा था।‘ वे पत्रिका को उलट-पलट कर देखते हुए बोले-’कभी-कभी यह पत्रिका मिलती है।‘ ’मैं अम्बिकापुर, सरगुजा, छत्तीसगढ़ से काशी विष्वविद्यालय में हिन्दी पुनष्चर्या पाठ्यक्रम करने आयी हूं।‘ अससे आगे मैं अपना परिचय देती कि वे स्वयं ही बोल पड़े-’हां, दो दिन पहले नामवर सिंह आए थे, मुझसे मिलकर गये हैं। वह जब भी मौका मिलता है, आते हैं।‘ ’जी हां उनके विद्वतापूर्ण भाषण से ही कार्यक्रम का उद्घाटन हुआ है,‘ आगे मेंने अपने आने के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा-’साम्य पत्रिका का आने वाजा अंक ’डा.ॅ रामविलास शर्मा जी‘ पर केन्द्रित होने जा रहा है। आपके उनसे निकट के सम्बन्ध रहे हैं, उनके परिवार से परिचित हैं। राजपूत काॅलिज (आगरा) में उनका-आपका साथ रहा है। आप उनके विषय में कुछ बताइए।‘
’हां, मैं पांच साल उस काॅलिज में था। फिर मैं बनारस आ गया। उदय प्रताप काॅलिज में बिना आवेदन के मुझे बुलाकर नियुक्त कर लिया गया था।अब सोचता हूं यहां आना मेरी भूल थी, राजपूत काॅलिज से नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी।
चन्द्रबली जी बिना किसी लाग लपेट के बहुत धीमी और मधुर आवाज में बोल रहे थे। उनकी आवाज में लय थी जैसे झरने के प्रवाह में कलकल की ध्वनि होती है कुछ-कुछ वैसी ही। उसके सामने मुझे अपनी आवाज बेसुरी और भारी महसूस हुई। मैंने अपनी आवाज को मधुर बनाते हुए कहा- ’डाॅ. शर्मा ने अपनी आत्मकथा‘ अपनी धरती अपने लोग (तीन खण्ड)में आपको बहुत आत्मीयता से याद किया है। मित्र संवाद में भी कई जगह आपका और आपसे पत्र-व्यवहार का जिक्र है यानी आप उनके काफी करीब थे।‘
’मित्र संवाद‘ में नोै बार जिक्र है (ंजबकि नौ से अधिक बार जिक्र है)। राजपूत काॅलिज में हम दोनांे ही इंग्लिश विभाग में थे। हमारी दोस्ती -वे कुछ क्षण अतीत में खो से गये थे। उनका चेहरा आत्मीयता से भर रहा था- कम वैसी दोस्ती देखने को मिलती है,अंतरंगता थी कहां नहीं...........पांच साल का साथ, अब तक चला है, हम पारिवारिक मित्र थे। मरी कल्चर इलाहाबाद की थी। उस समय नौजवान था, वामपंथी विचार थे। हिन्दी और अंग्रेजी का द्वन्द्व छिड़ा रहता था-विद्यार्थी क्या कहेंगे ? उनका जवाब होता-छोड़ो भी, इसकी चिंता तु मत किया करो।‘
’उनका रहन-सहन व्यवस्थित नहीं रहता था। कुछ व्यवस्थित तो वे बाद में हुए हैं, कपड़ों तक का ध्यान नहीं। यह आदत तो अंत तक रही। एक बार हम उनके यहां दिलली गये थे। उनके कपड़े काफी पुराने हो चले थे, सो मालकिन (डाॅ. शर्मा की धर्मपत्नी) उनके लिए कपड़े खरीद कर लायी थीं। उनकी शिकायत करते हुए वे बोले ’एक ही थान से एक ही रंग के चार पैंट के कपडे ले आयी हैं, अलग-अलग रंग ही ले आतीं।’ इस तरफ बस इतना ही ध्यान था। उनका ज्यादा ध्यान पढ़ने में रहता था। हां, क्रिकेट के शौकीन थे। ब्रेडमेन को खेलते रेडियो पर सुन चुके थे। हमारे काॅलिज में अध्यापकों की टीम थी। छात्रों की टीम से उसका मैच होता था। शर्मा जी अंग्रेजी विभाग के हेड थे। परन्तु सबसे बराबरी का व्यवहार करते थे। कोई पहचान नहीं सकता था कि कौन हेड है।‘
’आगरे में गोकुलपुरा गी में शर्मा का घर था। मामूली घर, दूसरे तल्ले पर, चढ़ने में डर लगता था। नालेवाली गली के दसरी तरफ नागर (अमृतलाल) की ससुराल थी। आगरे में अक्सर दंगे भड़कते थे। नागर दंगों से बहुत दुखी थे। उन्होंने दंगों को देखकरएक किताब भी लिखी थी। उन्हें लगता था आदमी आदमी नहीं रह गया है।‘
’शर्मा स्वभाव से हंसमुख थे। सिगरेट पीते थे, पान नहीं खाते थे। डिपार्टमेन्ट में खाली होता तो पंजा लड़ाया करते थे। हमारे महाविद्यालय में महेन्द्रपाल पहलवान थे। शर्मा उन्हें हरा तो नहीं पाते थे, पर जोर आजमाइश चलती रहती थी।‘
’शर्मा न्यायप्रिय और दबंग थे। व्यवस्था को लेकर शर्मा का प्रिंसिपल से भी झगड़ा चलता रहता था।‘
Û साहित्यिक चर्चा चलती होगी और किन विषयों पर चर्चा होती थी ?
- अनेक विषयों पर चर्चा होती थी। शर्मा निराला के संस्मरण सुनाते थे। उनका निराला से पारिवारिक सम्बन्ध था। जब मैं बनारस आ गया, तब भी पत्र में लिखा करते- ’निराला बीमार हैं, जाओ मिल आओ।‘
’इलाहाबाद में लेखक सम्मेलन था। शमशेर बहादुर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और मुंशी (शर्मा के भाई) इसमें आए थे। मुंशी ने कहा- चलो निराला से मिल लें। निराला के घर गये। उससमय निराला दारागंज में रहते थे। घर के आगे छोटा-सा प्लेटफार्म था। उस पर निराला अपनी धुन में घूम रहे थे। उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। कभी-कभी होश में आ जाते थे। हमारे साथ शर्मा को न देखकर बोले- हमारे लिए शर्मा के पास टाइम नहीं है। उन्होंने मुंशी से उनके घर के हर बच्चे का नाम लेकर पूछा। इस दशा में भी उन्हें उनके बच्चों के नाम याद थे।‘
चन्द्रबली जी निराला की चर्चा करते-करते एकाएक कुछ सोचते हुए शर्मा जी की पत्नी मालकिन का जिक्र करने लगते हैं। ’शर्मा से हमारा पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। मालकिन जब हमारे यहां आती थीं, घर की तरह काम करते हुए रहती थीं।‘
चन्द्रबली जी पलंग के पीछे की दीवार पर लगी तस्वीर की ओर संकेत करते हुए बताते हैं, ’यह तस्वीर मेरी पत्नी की है। हमारी शादी शर्मा ने कराई थी। हमारे श्वसुर दयालबाग में रहते थे। उन्होंने मुझसे कहा, लड़की देख लो। दयाल बाग के मंदिर में लड़की देखना तय हुआ। मैं तीन बार लड़की देखने गया, लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही संकोच और लज्जा के कारण साइकिल मोड़कर लौट आया। संयोग की बात है, 1945 में शादी हो गयी।‘
सिंह जी पत्नी का जिक्र करते हुए भावुक हो जाते हैं-’ वह मरीं तो मैं बहुत रोया। मेरी वाइफ की मृत्यु के बाद उन्होंने (रा. वि. शर्मा) जो पत्र लिखा था, उसे पढ़कर जानेंगी, शर्मा का व्यक्तित्व क्या था ?‘
चन्द्रबली जी पलंग और मेज पर बिखरे कागज-किताबों में शायद पत्र खोजने लगे। फिर भी मैंने पूछा- ’आप क्या खोज रहे हैं ?
’बक्से की चाबी खोज रहा हूं। अब चीजें रखकर भूल जाता हूं। एक माह पहले तो बोलने की स्थिति में ही नहीं था। बहुत बीमार था, गले से आवाज नही नहीं निकलती थी।‘ सिंह जी चीजें रखकर भले ही भूल जाते हों, पर उनकी अनुभूतियां अनुभवों से सम्बद्ध-असम्बद्ध धाराओं में बहुत सहजता से बह रही थीं। चाबी खोजने के साथ-साथ बातचीत जारी थी। इस बार शायद उन्हें चाबी रखने का स्थान याद आ गया था। वह विष्वास से उठे और चाबी उठा लाए। पलंग के नीचे से एक छोटा-सा बक्सा खींचा और उठाकर पलंग पर रख दिया। बक्से में कागज-पत्तर भरे थे। उन्हें उलट-पलट कर देखा-’रखा तो इसी में था। पत्र की फोटो काॅपी थी। कुछ लोग तो छापने के नाम पर मूल पत्र ही ले गए, उन्होंने लौटाया ही नहीं
पत्र की प्रति नहीं मिली तो उन्होंने बक्सा बंद कर दिया और भावुक हो कहने लगे, ’वाइफ मरीं, तो फूट-फूट कर रोया, कई माह रोया। लड़की विदा हुई तब भी रोया, खूब रोया। शर्मा को देखा, बीमार मालकिन को छोड़कर दिल्ली चले गये। जब वे मरीं तो शर्मा यहां नहीं थे। शर्मा को अपने ऊपर बहुत कंट्रªोल था। शर्मा के बच्चे उन्हें चाचा कहते थे। उनके बच्चे हमें भी चाचा कहते हैं। बनारस में मलदहिया चैक पर किराए का घर ले रखा था। उनका लड़का आया और बोला चाचा चलिए, अम्मा की डैथ हो गयी है।‘
’भोर में डैथ हुई थी। (14 अगस्त 1983)। मधु (शर्मा जी की पुत्र-वधू) रो रही थी। मैं भी खूब रोया। उनके लड़के कह रहे थे- चाचा आप रह जाइए, उन्हें (शर्मा जी को) हम नहीं संभाल पाएंगे। शर्मा उस दिन देर से पहुंच। कमरे के भीतर सिल्ली (बर्फ)पर मालकिन का शरीर रखा था। शर्मा आए, एक मिनट के लिए कमरे में घुसे और और बिना रोए झटके से बाहर निकल आए। उसमें शर्मा मेरा हाथ पकड़कर बीस- पच्चीस मिनट इधर से उधर घूमते रहे। इस बीच वह एक शब्द नहीं बोले। उन्होंने काफी देर बाद कहा-एवरी थिंग इज लास्ट, सब कुछ समाप्त हो गया। उनकी देहाती वाइफ थीं। ऐसा पे्रम मैंने कम देखा है। दोनों का प्रेम देखने लायक था।‘
इतना कहकर सिंह जी धीरे से उठे और कमरे से बाहर चले गए। मैंने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही दरवाजे से झांक कर देखा- आंगन में बैठे स्टोव जला रहे थे।कुछ देर बाद जब वे आए तो उनके हाथों में चाय-नाष्ते की ट्रे थी। मैंने हाथों से टेª लेने की कोशिश की तो बोले,’चाय का कप उठाओ।‘ मुझे चाय देकर उन्होंने स्वयं भी कप उठा लिया था। बाएं हाथ से बिस्कुट की प्लेट मेरे आगे कर उसे लेने का संकेत किया। जब मैंने बिस्कुट ले लिया तो वे सहज ढंग से पुनः बात करने लगे-’शर्मा इस समय भी कंट्रोल थे। वे घूमने के बाद चारपाई पर आकर बैठ गये। देखते क्या हैं-मुंशी आया और जमीन पर बैठकर शर्मा के घुटनों पर सिर रखकर रोने लगा। शर्मा उसकी पीठ सहलाने लगे। हम भौंचक हो देखते रहे।’

’उधर मालकिन की अंतिम रमें पूरी हो रही थी। मालकिन को नहला कर कपड़े-चूड़ी बहुओं ने पहना दी थीं। सिंदूर पहनाने का वकत आया। हम बैठका में बैठे थे। उनके लड़कों को हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी कि वे शर्मा से कहें-चाचा सिंदूर पहना दो। उनका लड़का मुझसे आकर बोला- चाचा से कह दीजिए,अम्मा को सिंदूर पहना दें। मैंने किसी तरह हिम्मत की- डाॅक्टर साहब मालकिन को सिंदूर पहना दीजिए- कहकर मैं बैठका से बाहर आ गया। उन्होंने चुपचाप जाकर सिंदूर पहना दिया। वे दाह-संस्कार के समय भी मौन थे।‘
बातचीत के दौरान सिंह जी ने उठकर फिर बक्सा खोला। इस बार थोड़े से प्रयास से उन्हें शर्मा जी के पत्र की प्रति मिल गई। वे मुझे प्रमाण देना चाहते थे कि शर्मा कितने कंट्रोल में थे। उन्होंने पत्र मेरे सामने बढ़ाते हुए कहा-’पढ़ो इसे‘...... मैंने पत्र लेकर पढ़ा। पत्र सिंह जी की पत्नी की मृत्यु के बाद लिखा गया था।

चन्द्रबली जी मालकिन की मृत्यु के प्रसंग से हटकर शर्मा जी और अपने समय के साहित्यिक माहौल को स्मृति में लाते हुए बातचीत का सिरा जोड़ने लगते हैं-’वह जमाना ही और था। अब तो लेखकों में अंतर आ गया है। सारा देश संकट से गुजर रहा है,लेकिन एक विचारधारा के लोग मिल-जुल कर नहीं सोच रहे हेै। लेखकों को सांप्रदायिकता के विरूद्ध उठना था। आज के लेखक आलोचना सह नहीं सकते। वह उदारता अब कहां ? में उस जमाने की बता रहा हूं। जब, पंत अरविन्दवादी हो गये थेे।हमने एक लेख स्वर्णकिरण की आलोचना में धज्जियां उड़ा दीं। पंत पर दो-तरफा आक्रमण हुए। शर्मा ने उनकी भाषा पर आक्रमण किया और मैंने उनके विचारों पर। हम दोनों का चिंतन एक-सा था। कुछ लोग समझते थे- हमारा गुट है।‘
’पंत ने लोकायतन में अपने बारे में लिखा। उत्तरा की भूमिका उन्होंने माक्र्सवादियों के विरूद्ध लिखी, जबकि पी.सी. जोशी से पंत की गहरी दोस्ती थी। पंत कम्यूनिज्म के निकट आ गये थे, लेकिन बाद में अरविंदवादी हो गये। उन्हें लगने लगा शर्मा और बली उन्हें पागल कर देंगे। मरा उन पर लेख निकला, आक्रमण भयानक था। लेकिन हमारी व्यक्तिगत दुष्मनी नहीं थी। मैंने उनकी ग्राम्या और युववाणी कृतियों की सराहना की है। शर्मा ने पंत के छायावादी काव्य की प्रशंसा भी की है। हमने कवल उनके अरविंदवाद की आलोचना की थी। मैं और शर्मा उनको गिराना या छोटा कवि सिद्ध करना नहीं चाहते थे। वे अरविंदवादी कलाकार के रूप् में गिर रहे थे। पंत के काव्य में कहीं क्रिया नहीं है। हमने कहा-’तुम्हारे चिंतन में क्रियाशीलता नहीं है, इसलिए क्रियाएं गायब हैं।कर्म से विरत हो गये हो, फिलासफी देकर कविता नहीं लिखी जा सकती । यदि फिलासफी देकर कविता लिखी जाती तो सब दार्शनिक कवि होते।‘
’यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। मै। कई जगह माक्र्स से सहमत नहीं हूं। माक्र्स समस्त विषयों- ज्ञान-विज्ञान से जो दार्शनिक-वैचारिक चीजें निकलती थीं- ले लेते थे। माक्र्स की प्रत्येक क्षेत्र के विकास पर नजर रहती थी। मेरा कहना यह है कि लेखकों के वैचारिक मतभेद रहते थे, व्यक्तिगत विरोध नहीं होता था। मैं इलाहाबाद गया वहां पंत से नहीं मिला। पंत की उदारता देखिए- बनारस में लेखक सम्मेलन था। टाउन हाल के भीतर मीटिंग हो रही थी। थोड़ा ऊंचा मंच बनाकर फर्शी व्यवस्था की गई थी। मैं वहां था, महादेवी वर्मा थीं। ठाकुरप्रसाद सिंह कार्यक्रम के संचालक थे। पंत ने मेरा नाम लिख कर एक चिट ठाकुर प्रसाद सिंह को दी। ठाकुर ने आवाज लगाई- चन्द्रबली सिंह बैठे हुए हैं कहीं ? पंत उनसे मिलना चाहते हैं। मैं उठकर मंच पर गया। पंत जी मुझे देखते ही बोले- मैं आपसे नाराज हूं। इलाहाबाद आए और बिना मिले ही चले गये। आगे से इलाहाबाद आए और बिना मिले चले गये तो अच्छा नहीं होगा।‘
मैं पंत के घर जाता था, तरह-तरह के विषयों पर चर्चा होती थी। हम इलाहाबाद आकाशवाणी जाते थे। उस समय पंत आकाशवाणी में थे। बातचीत के दौरान सिंह जी को रमा प्रसाद घिड़दियाल ’पहाड़ी‘ की याद हो आती है। वह विषय क्रम बदल देते हैं- उस समय पहाड़ी की गणना मनोवैज्ञानिक कथाकारों में होती थी। काशी में लेखकों के दो दल थे नरम और गरम।‘
’हम गरमपंथी थे। कहने का अर्थ यह है- कई बार मैं अपने लिखे से सहमत नहीं हो पाता हूं। कहीं-कहीं मैं और शर्मा एकमत होते थे। लेकिन वाद विवाद की हमारी शैली में कोई समानता नहीं थी। शर्मा दबंग थे। प्रिसिपल की तानाशाही के विरूद्ध आवाज उठती ही रहती थी। शर्मा के पीछे खुफिया पुलिस लगाई गई। पुलिस काॅलिज में जब-तब पहुंचती रहती थी। उनके बारे में पूछकर चली जाती थी। एमेरजेंसी में मेरे खिलाफ भी वारंट निकला। वारंट थाने में पदस्थ मेरे विद्यार्थी को मिला। उसे मेरा नया घर मालूम था, लेकिन वह पुराने घर में पूछताछ की खानापूर्ति कर चला गया। उस समय बनारस का एस.पी. भी मेरा विद्यार्थी था। उसने मुझे कहीं छिप जाने की सलाह दी। मैं प्रिसिपल डा. मोती सिंह के घर में भूमिगत हो गया। और मैं अपने विद्यार्थियों के कारण जेल जाने से बचा।‘
Û डा. शर्मा को किस कारण प्रगतिशील लेखक संघ छोड़ना पड़ा ?
- ’यह शर्मा के लिए बहुत दुखद था। वे बार-बार मुझसे कहते थे- तुम तो जानते ही हो प्रगतिशील लेखक संघ को मैंने नहीं छोड़ा। एक बात यह थी- उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी में रुचि लेना बन्द-सा कर दिया था। कम्युनिस्ट पार्टी में बहुत से ऐसे लोग थे जो ये मानते थे कि प्रगतिशील लेखक संघ को कम्यु- निस्ट पार्टी का समर्थन प्राप्त है। ऐसी ही बहुत-सी बातें हुईं। 1953 में स्तालिन की मृत्यु हुई। शोक सभा होने वाली थी। डा. शर्मा की जगह कृष्नचंदर महासचिव हुए। 1982 में मैं जनवादी लेखक संघ का पहला महासचिव बना।‘
Û क्या कारण है शर्मा जी पर हिन्दूवादी होने का आरोप लगाया गया। जबकि उनके समग्र साहित्य को देखा जाए तो वे सामप्रदासिकता के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं।
- ’मेरे विचार से एक तो उनकी आरक्षण सम्बन्धी विचारधारा थी, यह एक कारण था। उनका मानना था- आरक्षण का लाभ गरीबों को नहीं मिल पा रहा है इसका लाभ सम्पन्न नेता लोग उठा रहे हैं। दूसरा- उनका जो आर्यों पर मत है, वह भी कारण हो सकता है और फिर वे पार्टी के मेम्बर नहीं रह गये थे। लेखक का काम लिखने का है। ये लोग शर्मा के चरित्र को नहीं जानते हैं,फौलाद थे शर्मा। इनके लिए कोई शत प्रतिशत कम्युनिस्ट नहीं है, तो वह विरोधी है। लेखक स्वतंत्र होता है। शर्मा को समग्रता में देखो। उनके पूरे साहित्य को पढ़े तो बिना कैसे निर्णय कर सकते हो ? शर्मा को ब्राम्हणवादी कह दो, शुक्ल जी पर भी ब्राम्हणवादी होने का आरोप लगा है। नामवर सिंह, हजारी प्रसाद द्विवेदी के पक्षधर रहे हैं,शर्मा शुक्ल जी के। नामवर सिंह द्विवेदी जी को ज्यादा प्रगतिशील मानते हैं। अपने-अपने मत हैं। मैं इन दोनो से सहमत नहीं हूं।‘
’ शुक्ल जी को मैंने उनके घर पर देखा था। मैं उनके घर गया था। उदय प्रताप काॅलिज में हिन्दी के प्राध्यापक मार्कण्डेय सिंह थे। कोॅलिज में साहित्यिक वातावरण उनके कारण था। रामचन्द्र शुक्ल जी के घर मुझे मार्कण्डेय ले गये थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी से भी मेरी दोस्ती थी। मैं उनके घर जाता था। मेरा कहना यह है कि मैं प्रगतिशील परम्परा से अलग दूसरी परम्परा नहीं मानता। मेरा कहना यह है कि मैं प्रगतिशील प्राचीन काल से चली आ रही है। कबीर से इसका कुछ थोड़ा विकास हुआ। लेकिन द्विवेदी जी की बहुत- सी बातों से मैं सहमत नहीं हूं। शुक्ल जी का साधारणीकरण...... माक्र्सवाद जर्नलाइज्ड होता है। माक्र्स ने कहा- साधारणीकरण किसी स्पेशल का होता है, उसमें केवल चयन करना पड़ता है। शुक्ल जी ने भी कहा- ये फोटोग्राफी नहीं होता। शुक्ल जी साहित्य का सराकार लोकमंगल को मानते हैं और साथ ही सौन्दर्य को भी। वे अपने को ही काटते हैं। शेक्सपियर माक्र्स को प्रिय थे। उनके घर के नौकरों तक को शेक्सपियर का नाम याद था। शेक्सपियर रिनाॅसा के प्रतिनिधि थे। उन्होंने (साहित्य में) मानवतावाद को जन्म दिया। मनुष्य को केन्द्र में रखा। पहले शिक्षा चर्च से जुड़ी थी। शेक्सपियर ने उसे मनुष्य आधारित बनाने पर जोर दिया। हेमलेट क्यों पापुलर है ? हेमलेट हम लोगों में बसता है, है भी, जिस समाज में वह रहता है,वह सड़ गया हैं,षडयंत्रकारी हो गया है। उसकी मां पति को मार देती है और उसके चाचा से शादी कर लेती है। हम जिस समाज में रह रहे हैं, वहां भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। क्या हमारे समाज में परायापन नहीं है ? टी.एस. इलियट में फिलासफी अधिक है, समाज की भूमिका नहीं है। वह चर्च को प्रधान मानता है। हेमलेट जनवाद को मानता है। हहमें हर आदमी में हेमलेट जीवित है। इसीलिए हेमलेट प्रसिद्ध है। शेक्सपियर का मैकबेथ लम्बा है, पर अपील कमजोर है। जिस समाज में हम रहते हैं,उसी को बिलाॅंग नहीं करते। माक्र्सवाद क्या है ? ऐसे समाज की रचना, जो परायापन खत्म कर दे। हम श्रम एक-दूसरे के लिए करते हैं। कम्युनिज्म आयेगा,तब परायापन कम होगा।‘
’ माक्र्स और शेक्सपियर के बाद मैं शेली को पसंद करता हूं। शेली मजदूर वग्र की लड़ाई में सहयोगी था। मानवमुक्ति का पक्षधर था।‘
Û यशपाल जी से भी आपका मतभेद..... वाक्य पूरा होने से पहले ही चन्द्रबली जी हंस पड़ते हैंै।
- ऐसा था कि यशपाल ने नया पथ में एक लेख लिखा था। उस समय शिव वर्मा नया पथ के संपादक थे। यशपाल भी संपादन किया करते थे। यशपाल डाॅ. शर्मा, अमृत राय और मुझसे नाराज थे। यशपाल ने लिखा - ये बकवास किया करते हैं। जबकि ऐसा नहीं था। यशपाल के झूठा-सच (उपन्यास) की तारीफ शर्मा ने की थी। शर्मा ने उनके पूरे साहित्य की आलोचना नहीं की थी। लेकिन एक पक्ष की भी आलोचना लेखक सह नहीं पाता। यशपाल का तार आया- मेरा उत्तर देना है, जल्दी भेजिए। मैंने यशपाल के विरुद्ध लिखा और वह छपा। पाठकों ने देखा- चन्द्रबली का अपने विरुद्ध लिखा लेख यशपाल छाप रहे हैं, अपने संपादन में। ऐसा नहीं है विवाद ही हुआ था उनमें उदारता भी थी।
Û डाॅ. शर्मा के विरुद्ध भी लेख लिखा था।
- हां, लिखा तो था। आलोचना में डाॅ. शर्मा का एक लेख छपा था। उससे मैं सहमत नहीं था। मैंने शर्मा के विरुद्ध सबसे कड़ा लेख लिखा। वह जनयुग में छपा। नामवर सिंह जनयुग के संपादक थे। तीन किष्तों में लेख निकला। मैं शर्मा के विचारों से सहमत नहीं था। लिखते समय हृदय रो रहा था, दिमाग मुझे खींच रहा था। विचारों की ईमानदारी कह रही थी, लिखो। इस लेख में डाॅ. शर्मा के प्रति व्यंग्य और कटाक्ष था। व्यंग्य और कटाक्ष की शैली पहले पृष्ठ से ही शुरू हो जाती है। लेकिन उस आदमी का बड़प्पन-शर्मा के स्नेह में कभी भी कमी नहीं आयी। जरूरी नहीं विचार एक से हों। केदारनाथ अग्रवाल की अस्सी वीं वर्षगांठ इलाहाबाद में मनाई गई। भारत भर से लेखक आए। शर्मा ने केदार पर भाषण नहीं दिया। शर्मा ने कहा,’मैं सोवियत संघ के विघटन पर बोलूंगा। केदार पर एक शब्द नहीं बोलूंगा, चन्द्रबली बोलेगा। और वे केदार पर न बोले। मैंने प्रगतिशील कविता और केदार पर भाषण दिया। मैंने भाषण में कहा- अज्ञेय ने ठीक ही कहा- ’हमने धक्का मार कर अपने को आगे किया है। हम लड़े हैं।‘ इलाहाबाद से बनारस आते समय रास्ते में कार में शर्मा ने कहा- चन्द्रबली तुम क्या करते हो, इतना अच्छा भाषण दिया, तुम एक किताब लिखो। नहीं लिखोगे, तो मैं प्रचारित कर दूंगा भूतपूर्व आलोचक चन्द्रबली सिंह। तुम किताब लिखोगे तो मैं तुम्हें एक किताब समर्पित कर दूंगा, आगे ’अ‘ और जोड़ दूंगा- अभूतपूर्व आलोचक चन्द्रबली सिंह को। उस समय मेरा लिखना कम हो गया था।
रामविलास शर्मा की मृत्यु हुई तो मुझे धक्का लगा। शोक सभा का संचालक था। फोटो पर माला चढ़ाने लगा तो रोने लगा, शरीर कांपने लगा। मैं बहुत दुखी था...... ।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

संत रविदास जी की रचनाएं

संत रविदास जी की जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है उनकी दो रचनाएं....... #1 अखि लखि लै नहीं का कहि पंडित , कोई न कहै समझाई। अबरन बरन रूप नहीं जाके , सु कहाँ ल्यौ लाइ समाई।। टेक।। चंद सूर नहीं राति दिवस नहीं , धरनि अकास न भाई। करम अकरम नहीं सुभ असुभ नहीं , का कहि देहु बड़ाई।।१।। सीत बाइ उश्न नहीं सरवत , कांम कुटिल नहीं होई। जोग न भोग रोग नहीं जाकै , कहौ नांव सति सोई।।२।। निरंजन निराकार निरलेपहि , निरबिकार निरासी। काम कुटिल ताही कहि गावत , हर हर आवै हासी।।३।। गगन धूर धूसर नहीं जाकै , पवन पूर नहीं पांनी। गुन बिगुन कहियत नहीं जाकै , कहौ तुम्ह बात सयांनीं।।४।। याही सूँ तुम्ह जोग कहते हौ , जब लग आस की पासी। छूटै तब हीं जब मिलै एक ही , भणै रैदास उदासी।।५।। #2 ऐसौ कछु अनभै कहत न आवै। साहिब मेरौ मिलै तौ को बिगरावै।। टेक।। सब मैं हरि हैं हरि मैं सब हैं , हरि आपनपौ जिनि जांनां। अपनी आप साखि नहीं दूसर , जांननहार समांनां।।१।। बाजीगर सूँ रहनि रही जै , बाजी का भरम इब जांनं। बाजी झूठ साच बाजीगर , जा

शलभ श्रीराम सिंह की दो कविताएँ

शलभ श्रीराम सिंह के बारे में बाबा नागार्जुन का अभिमत है कि, "शलभ से हिन्दी कविता का एक नया गोत्र प्रारंभ होता है. उन्हें किसी मठ में शरण लेने की आवश्यकता नहीं है." शलभ श्रीराम सिंह की कविताओं को लेकर डॉ. रामकृपाल पांडेय का कहना है कि, " प्यार का जितना सूक्ष्म, व्यापक, स्वस्थ और अकुंठ चित्रण शलभ ने किया है, सात्ोत्तरी कवियों में शायद किसी अन्य ने किया हो." उस दिन ईख की सूखी पत्ती का एक टुकड़ा था बालों में पीछे की तरफ. ज़रूरत से ज़्यादह बढ़ गई थी गालो की लाली. आईने में अपने चेहरे की सहजता सहेज रही थीं तुम खड़ी-खड़ी. सब कुछ देकर चली आईं थीं किसी को चुपचाप. सब कुछ देकर सब कुछ पाने का सुख था तुम्हारे चेहरे पर उस दिन उस दिन तुमको खुद से शरमाते हुए देख रहा था आईना. तुम्हारा शरीर है यह यह तुम्हारा शरीर है मेरे शरीर में समाता हुआ आता हुआ आईने के सामने प्यार का मतलब बताता हुआ पूरे यकीन के साथ. यह तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में बदलता हुआ निकलता हुआ आस्तीन से बाहर चलता हुआ भूख और प्यास के खिलाफ़ यह तुम्हारी आँख है मेरी आँख में ढलती हुई मचलती हुई देखने को पूरी दुनिया संभलती हुई किसी
  [हिंदी कविता में विविधता और सर्जनात्मकता की बहुलता में एक अनूठी और आदिम भावबोध की कविताओं का स्त्रीवाची स्वर विश्वासी एक्का की कविताओं में दीखता है।प्रकृति का सरल सौंदर्य, प्रकृति के साथ  सह-अनुभति , और सादा जीवन का सादगी पूरित दुःख और सुख को सीधी भाषा में कहने का सधे ढंग से अभिव्यक्त करने की विश्वासी क्षमता ने मध्यवर्गीय शहरी चेतना सम्पन्न कविताओं के दौर में अलग और विशिष्ट बनाता है। भावयति में उनकी कविताएँ पहली बार लगा रहे हैं।]