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एक स्वप्नकथा --मुक्तिबोध

मुक्तिबोध की कविताओं में ज्यों - ज्यों उतरते जाते हैं , हम एक समुन्दर में गहरे और गहरे डूबते जाते हैं। समुन्दर कैसा ? स्याह।    अपरिमेय जलराशि गहनतम इतनी कि बेधना कठिन से कठिनतर होता जाता है । शमशेर ने उनकी कविताओं से खुद को अलगाते हुए कहा कि " ऐब्स्ट्रैक्ट नहीं , ठोस। बहती हवाओं - सा लिरिकल , अर्थहीन - सा कोमल , न कुछ नहीं, : बल्कि प्रत्येक पंक्ति में चित्र के उभार को और भी घूरती और भी ताड़ती हुई आँख से प्रत्यक्ष करता हुआ। अनुभूति के यथार्थ से कतराता हुआ नही, बल्कि अपने तक और भावना के कुदाल से अनुभव की कड़ी धरती को लगातार गहरे खोदता जाता। "       कड़ी धरती खोदने और खोदते जाने की निरंतरता से बने सियाह समुन्दर में उतरने के उपक्रम में पहला कदम रखते ही ठोस काला-जल धड़क उठता है| थरथराती जल की लहरें संवेदनाओं की अतल गहराइयों में खींच लेती है| कुछ ऐसी ही अनुभूति मैं भी मुक्तिबोध की लम्बी कविता “एक स्वप्न कथा” शुरू करते ही गुजरा| एक विजय और एक पराजय के बीच मेरी शुद्ध प्रकृति मेरा ' स्व ' जगमगाता रहता है विचित्र उथल-पुथल में। कविता की शुरुआत ही मध्यवर्गीय