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मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल

आज इस महान उर्दू शायर के जन्मदिवस पर पेश है एक ग़ज़ल जो दिल से निकल कर दिल को छु जाती है............. हर एक बात पे कहते हो तुम के ‘ तू क्या है ‘ ? तुम्ही कहो के यह अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है ? न शोले में ए करिश्मा न बर्क में यह अदा कोई बताओ की वोह शोख-ए-तुन्द खू क्या है ? यह रश्क है की वो होता है हम सुखन तुमसे वगरना खौफ-ए-बाद आमोजी-ए-अदू क्या है ? चिपक रहा है बदन पर लहू से पैरहन हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफू क्या है ? जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो अब राख, जुस्तजू क्या है ? रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है ? वोह चीज़ जिसके लिए हमको हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाय बादा-ए-गुल-फाम-ए-मुश्कबू क्या है ? पियूं शराब अगर खुम भी देख लूं दो चार यह शीशा-ओ-कडाह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है ? रही न ताकत-ए-गफ्तार, और अगर हो भी तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है ? बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगरना शहर में ‘ ग़ालिब ‘ की आबरू क्या है ?

मुक्तिबोध के ९३ वी जयंती के अवसर पर विशेष लेख

मुक्तिबोध: कथाकार व्यक्तित्व् डॉ. नागेश्वर लाल श्रीकांत वर्मा ने मुक्तिबोध की कहानियों के सन्दर्भ में प्रश्न पूछा है – “ क्या मुक्तिबोध के साहित्य का, जो महज साहित्य न रहकर मनुष्यता का दस्तावेज हो गया है, मूल्यांकन करने की जरुरत रह गयी है ?” प्रश्न के ढंग से बिल्कुल स्पष्ट है कि जरुरत नहीं है . फिर भी मुक्तिबोध की कविता का तथा नयी कविता, सर्जन-प्रक्रिया और अन्य विषयों के सम्बन्ध में उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों का मूल्यांकन किया जाता रहा है . उनकी कहानियों के मूल्यांकन के सम्बन्ध में श्रीकांत वर्मा का रुख समझ में नहीं आता . प्रतीत होता है कि दो धारणाओं के कारण उनका यह रुख है . वे समझते हैं कि मुक्तिबोध कि कहानियों में कुछ ऐसा है जो अटपटा लग सकता है; यहाँ तक कि उनमें कहानी की कमी भी है . शायद इसी कारण वे अपनी दूसरी धारणा प्रकट करते हुए सावधान करते हैं कि ‘मुक्तिबोध के साहित्य को उनके ही साहित्य की कसौटी के रूप में देखा जाये’ क्योंकि ‘उसमें इतनी प्रचंडता है कि उसपर परखने पर अपने अन्य गुणों के लिए महत्वपूर्ण दूसरों का साहित्य निश्चय टुच्चा नजर आयेगा .’ इ

ऐसी थी दोस्ती

दस वर्ष पूर्व डा. चन्द्रबली सिंह से डा. आशा शर्मा ने साम्य के डा. रामविलास शर्मा के विषेषांक हेतु यह साक्षात्कार लिया गया था। वह डा. शर्मा पर एकाग्र अंक हाल ही प्रकाषित हुआ,जिसमें वह साक्षात्कार प्रकाषित हुआ है। अंक आने के लगभग एक माह बाद डा. चन्द्रबली सिंह के दुःखद निधन का समाचार हिन्दी-जनता में निशब्द सा घुलता हुआ मिला। डा.चन्द्रबली सिंह को विनम्र श्रद्धांजलि स्वरूप भावयति में साक्षात्कार प्रस्तुत है। डा. चन्द्रबली सिंह -डा. आशा शर्मा काशी विष्वविद्यालय में आयोजित पुनष्चर्या पाठ्यक्रम में भाग लेने के दोरान मैंने डा.ॅ चन्द्रबली सिंह जी से मिलने का मन बना लिया था। मैंने कार्यक्रम के संचालक डा.ॅ अवधेश प्रधान जी से सिंह जी के घर का पता ले लिया। यूं भी बनारस मेरे लिए नई जगह भी। मैं 10 जून 2001, रविवार की छुट्टी में विष्वविद्यालय से रेल्वे स्टेशन पहुंची और वहां से रिक्शे से मलदहिया चैराहा। मैंने रिक्शे पर बैठे-बैठे ही कुछ सभ्य ज

निराला के गीत

निराला माने वसंत का अग्रदूत, हिन्दी के महाकवि निराला की आज वसंत पंचमी के दिन जयंती के अवसर पर उनके कुछ वासन्ती गीत प्रस्तुत है: रँग गई पग-पग धन्य धरा,--- हुई जग जगमग मनोहरा । वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर, तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर खुली रूप - कलियों में पर भर स्तर स्तर सुपरिसरा । गूँज उठा पिक-पावन पंचम खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम, सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम वन श्री चारुतरा सखि, वसन्त आया सखि वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया । किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी-- पिक-स्वर नभ सरसाया । लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया । आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अंचल पृथ्वी का लहराया ।

आग चाहिए आग

ठंड की शाम की बारिश का एक लैंडस्केप काले-गहरीले बादलों की अंधेरी सैन्य टुकड़ी हवाओं के घोड़ों पर सवार, दसों-दिशाओं से घेर रही कमजोर सूर्य को ठंड के दिनों की एक शाम| वनबेला के उज्ज्वल छीटों से भरी पहाड़ी ढलान की हरी चादर साँवली झाीओं से लिपटती सिहर रही थरथाराती कंपन से आर्द्र ऊष्मा से आक्रांत अंधेरी सैन्य टुकड़ी ने शुरू काए दिया बुनना जल का जाल आकाश से पृथ्वी तक जल के तार बाँधती टुकड़ी का शोर भरने लगा पहाड़ी ढलान में| ढलान की हरी चादर झोपड़ियोंमें टहलते टहल बजाते, झुरमूटों में विचरते और घास भरे गीले मैदान में रेंगते जीवन पर, कसता जाता जल का जाल| जल-जाल बिच कसमसाते जीव जुगत में लगने लगे, अपने सामर्थ्य का करते हिसाब ओदे हो गये हैं आग के सारे स्रोत, अकस्मात ही जल-जाल ने घेर लिया सारा का सारा खलिहान झोपड़ियों के बीच में, एक झोपड़ी के भीतर काँपती सी बुढाई आवाज़- आग-आग चाहिए,थोड़ी-सी आग