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जनवरी 9, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आग चाहिए आग

ठंड की शाम की बारिश का एक लैंडस्केप काले-गहरीले बादलों की अंधेरी सैन्य टुकड़ी हवाओं के घोड़ों पर सवार, दसों-दिशाओं से घेर रही कमजोर सूर्य को ठंड के दिनों की एक शाम| वनबेला के उज्ज्वल छीटों से भरी पहाड़ी ढलान की हरी चादर साँवली झाीओं से लिपटती सिहर रही थरथाराती कंपन से आर्द्र ऊष्मा से आक्रांत अंधेरी सैन्य टुकड़ी ने शुरू काए दिया बुनना जल का जाल आकाश से पृथ्वी तक जल के तार बाँधती टुकड़ी का शोर भरने लगा पहाड़ी ढलान में| ढलान की हरी चादर झोपड़ियोंमें टहलते टहल बजाते, झुरमूटों में विचरते और घास भरे गीले मैदान में रेंगते जीवन पर, कसता जाता जल का जाल| जल-जाल बिच कसमसाते जीव जुगत में लगने लगे, अपने सामर्थ्य का करते हिसाब ओदे हो गये हैं आग के सारे स्रोत, अकस्मात ही जल-जाल ने घेर लिया सारा का सारा खलिहान झोपड़ियों के बीच में, एक झोपड़ी के भीतर काँपती सी बुढाई आवाज़- आग-आग चाहिए,थोड़ी-सी आग