सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जून 27, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
(अनिरूद्ध नीरव नवगीत में एक सुपरिचित नाम है. इनके गीतों में प्रकृति और जीवन के सौन्दर्य का अनूठा स्थापत्य दिखाई देता है. उनके दो और नवगीत, उनके संग्रह "उड़ने की मुद्रा में" से प्रस्तुत है) कोई जलसा सारा जंगल कपड़े बदल रहा है कोई जलसा हफ्तों से चल रहा है इनके कपड़े वसंत ने सिले हैं शेड्स रंगों के सूर्य से मिले हैं फिट कुछ इतने बदन बदन खिले हैं मैं भी पहनू ये मन मचल रहा है मैं भी बढ़िया हरी कमीज़ ला कर उसको पहना अपने को कुछ लगा कर पेड़ देखे हँसने लगे ठठा कर कोई नकली असली में खल रहा है तब मैं जाना सुना भी था बड़ों से ये हरियाली मिलती न टेलरों से कोई रस है आता है जो जड़ों से मेरे नीचे मार्बल फिसल रहा है पिछला घर होता है अंतत: विदा घर से वह पिछला घर शीतल आशीष भरा एक कुआँ छोड़ कर चाह तो यही थी वह जाए पर उसका कोई हिस्सा ठहरे कुछ दिन चुने की परतों में बाबा माँ बाप रहें बच्चे लिखते रहें ककहरे कुछ दिन लेकिन वह समझ गया वक्त की नज़ाकत को सिमटा फिर हाथ पाँव मोड़कर चली कुछ दिनों तक पिछले घर की अगली यात्रा की तैयारी पुरज