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A Ballad by Mitesh Mishra

Sometimes things happen so violently in the life that we are unable to control it, this ballad resides on of such incidence in my life.......... have a look how love seems LOVE IS......................INNOCENT In the redness of the morning, when the the cool wind blows, my eyes feel the freedom, while seeing her roam। She make my day, everyday, she fills my heart with happiness, for her my soul always pray, her wings are enchanting, just like a rainbow, on a little rainy day. She glows like an angel, she floats like a kite, she sings thousand songs, whenever she stays, she is so beautiful, that my eyes never stray, no one noticed her, but how did she knew, that i may. Is she a friend or she just play, but whatever she did, i just want to say, i like seeing her fly, Through out the day, but she's shy and she is kind, i m happy to see her everyday. she does'nt belongs to me neither you,i must say. Now I like to wake in the morning, i like smell of th

घनानंद की एक कविता

’घनआनँद’ प्यारे कहा जिय जारत, छैल ह्वै फीकिऐ खौरन सों । करि प्रीति पतंग कौ रंग दिना दस, दीसि परै सब ठौरन सों ॥ ये औसर फागु कौ नीकौ फब्यौ, गिरधारीहिं लै कहूँ टौरन सों । मन चाहत है मिलि खेलन कों, तुम खेलत हौ मिलि औरन सों ॥

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता प्रस्तुत है.

अक्सर एक व्यथा अक्सर एक गन्ध मेरे पास से गुज़र जाती है, अक्सर एक नदी मेरे सामने भर जाती है, अक्सर एक नाव आकर तट से टकराती है, अक्सर एक लीक दूर पार से बुलाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहीं पर बैठ जाता हूँ, अक्सर एक प्रतिमा धूल में बन जाती है । अक्सर चाँद जेब में पड़ा हुआ मिलता है, सूरज को गिलहरी पेड़ पर बैठी खाती है, अक्सर दुनिया मटर का दाना हो जाती है, एक हथेली पर पूरी बस जाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से उठ जाता हूँ, अक्सर रात चींटी-सी रेंगती हुई आती है । अक्सर एक हँसी ठंडी हवा-सी चलती है, अक्सर एक दृष्टि कनटोप-सा लगाती है, अक्सर एक बात पर्वत-सी खड़ी होती है, अक्सर एक ख़ामोशी मुझे कपड़े पहनाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से चल पड़ता हूँ, अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है ।

पावन करो नयन !

रश्मि, नभ-नील-पार, सतत शत रूप धर, विश्व-छवि में उतर, लघु-कर करो चयन! प्रतनु, शरदिंदु- वर, पद्म-जल-विंदु पर, स्वप्न-जागृति सुघर, दुख-निशि करो शयन _निराला भावयति से गुजरने वाले दोस्तों को दिवाली की हार्दिक बधाई !

अग्निकांड- माक्सिम गोर्की

मेरे पुस्तकों के संग्रह में एक किताब पुरानी और ठीक-ठाक कटी -फटी है| इस किताब का नाम गोर्की के संस्मरण है, जिसका पता पृष्ठ दर पृष्ठ कोनों में अंकित किताब के नाम से चलता है| किताब के बचे हुए आख़िरी पन्ने पर नीली स्याही से एक अपरिचित दस्तख़त है, अनुवादक का नाम इसी स्याही से इलाचंद्र जोशी लिखा हुआ है, विश्व के महान कथाकार का अनुवाद हिन्दी के प्रख्यात कथाकार के द्वारा मुझे काफ़ी महत्व का लगा | अंजाने पुस्तक प्रकाशक, जिन्होने यह अद्भूत आयोजन किया है,के प्रति आभार सहित प्रस्तुत है मक्सिम गोर्की की आग के सम्मोहक सौंदर्य से अभिभूत करती एक रचना अग्नि-कांड फ़रवरी के महीने की एक अंधेरी रात जब मैं निज़ानी नोवोगोरोद के अंतर्गत ओशार्स्क स्क्वायर नमक स्थान में पहुँचा,तो किसी एक मकान के छतवाले कमरे की खिड़की से निकलती हुई आग की लपट लोमड़ी की दूम के समान दिखाई दी| उस अंधेरी रात में वह लपट आतिशबाज़ी की तरह बड़े-बड़े चिनगारे उगल रही थी| चिनगारे एक-एक करके बड़े धीरे से अनिच्छा से पृथ्वी पर गिर रहे थे| आग के उस सौंदर्य उस मुझे विचलित कर दिया| ऐसा मालूम होता था जैसे लाल रंग का कोई जानवर अकस्मात अंधेरे क

ओ.एन.वी. कुरुप की कविताएँ

ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित ओ.एन.वी. कुरुप मलयालम कविता के वरिष्ठ, सर्वाधिक संवेदनशील, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त क्रांतिकारी जनकवि हैं| शब्द और जन की रागात्मकता के अनुपम गायक, जन परम्परा और और लोक-संपदा के रक्षक,जनकवि की कविताएँ बीसवीं व इक्कीसवीं सदी के दुख, संघर्ष, विनाश और निर्माण की कविताएँ हैं| एक जीता-जागता सच्चा जन-इतिहास; सच्ची आत्मभिव्यक्ति जनवाणी के वेग और तेज से प्रेरित और निर्मित उनकी कविताएँ प्रस्तुत हैं| फीनिक्स चिता से फिर से जी उठूंगा पंख फूलों की तरह खोलता उठूंगा| मैं एक दिव्याग्ञि का कण हो किसी मरूभु के गर्भ में प्रविष्ठ हुआ. एक मूँगे के बीज को दो पत्तियों की तरह स्वर्णपंख डोलता मैं ऊपर उठता गया ज्वालामुख खोल जगे हिरण्यमय नाल की तरह अग्नि से अंकुरित हुआ| निदाघपुरुष एक व्याघ की तरह तीर मारता, रक्त का प्यासा बन जिस धरती पर चल रहा है उसमें मैं छाया व प्रकाश फैलाता उड़ता हूँ| क्या जगह-जगह हरे बीज उगे ? रेत के पाट में क्या फूल खिले ? क्या मरुस्थली सूर्य-महाराज की तरफ उठता स्वर्णमुख राग बन ज्वलित हो उठी ? मैं उन दलों से उठता उन्मत्त मधु शलभ होकर जब उड़ूँ गाता उड़ूँ, दो
प्रस्तुत है सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी की एक कविता.......... बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु! बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु! पूछेगा सारा गावों बंधु! यह घाट वही जिस पर हँसकर, वह कभी नहाती थी धँसकर, आँखें रह जाती थी फंसकर, काँपते थे दोनो पाँव बंधु! बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु! पूछेगा सारा गावों बंधु! वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, फिरभी अपने में रहती थी, सबकी सुनती थी सहती थी, देती थी सबके दाँव बंधु! बांधो ना नाव इस ठाँव बंधु!

शून्‍य

मुक्तिबोध की कविता शून्‍य मुक्तिबोध की कविताओं में सूक्ष्म और स्फूल दोनो के चित्रण में एक अद्भुत स्पष्टता होती है सब कुछ जैसे हम अनुभूत कर लेते हैं. सूक्ष्म और स्फूल वैज्ञानिक और रूमानी,और नपे तुले का अद्भूत और विचित्र योग मिलता है. मुक्तिबोध की शक्तिशाली मानवतावादी रोमानियत में अमूर्त का विस्तृत मूर्तिकरण स्वप्न कथाओं में व्यक्त होता है. ११ सितंबर के दिन उनके पुन्यस्मरण के रूप में उनकी कविता शून्य प्रस्तुत है.................. भीतर जो शून्य है उसका एक जबड़ा है जबड़े में माँस काट खाने के दाँत हैं ; उनको खा जायेंगे, तुम को खा जायेंगे । भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह हमारा स्वभाव है, जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में ख़ून का तालाब है। ऐसा वह शून्य है एकदम काला है,बर्बर है,नग्न है विहीन है, न्यून है अपने में मग्न है । उसको मैं उत्तेजित शब्दों और कार्यों से बिखेरता रहता हूँ बाँटता फिरता हूँ । मेरा जो रास्ता काटने आते हैं, मुझसे मिले घावों में वही शून्य पाते हैं । उसे बढ़ाते हैं,फैलाते हैं, और-और लोगों में बाँटते बिखेरते, शून्यों की संतानें उभारते। बहुत टिकाऊ हैं, शून्य उपजाऊ है । जगह-जगह करवत,कट

प्रेमगीत

( जीवन संगिनी गीता के लिए) गहराती शाम में सब्जियों की टोकरी से चंद आलू और बरबट्टी अलगाती तुम| जल, हाँ अश्रुजल से धूंधलाई आँखों को सपनों के सोखते से सुखाने की कोशिश में, स्याह रंगत में घुलती सांझ को सुख की रंगीनियों से जगमगाने की कोशिश में रत मैं बरबट्टी तोड़ती और मन के भीतर की ऊष्म आर्द्रता,सिर झुकाए, आँखों में घोलती तुम, देख नहीं सकोगी अपनी आँखों के केसर घुले अश्रुजल को मेरे पास वो ताब नहीं या वो दर्पण नहीं कि तुम्हारी आँखो में केसर घुले आँसुओं की झलक परावर्तित कर सकूँ| छौंके प्याज के भुनाने की गंध पूरे घर को जलन के बावजूद सुवादू सुवास से भर रही थी| घर में केवल तुम और मैं बैठे थे तुम्हारी रसोई में|

शलभ श्रीराम सिंह की दो कविताएँ

शलभ श्रीराम सिंह के बारे में बाबा नागार्जुन का अभिमत है कि, "शलभ से हिन्दी कविता का एक नया गोत्र प्रारंभ होता है. उन्हें किसी मठ में शरण लेने की आवश्यकता नहीं है." शलभ श्रीराम सिंह की कविताओं को लेकर डॉ. रामकृपाल पांडेय का कहना है कि, " प्यार का जितना सूक्ष्म, व्यापक, स्वस्थ और अकुंठ चित्रण शलभ ने किया है, सात्ोत्तरी कवियों में शायद किसी अन्य ने किया हो." उस दिन ईख की सूखी पत्ती का एक टुकड़ा था बालों में पीछे की तरफ. ज़रूरत से ज़्यादह बढ़ गई थी गालो की लाली. आईने में अपने चेहरे की सहजता सहेज रही थीं तुम खड़ी-खड़ी. सब कुछ देकर चली आईं थीं किसी को चुपचाप. सब कुछ देकर सब कुछ पाने का सुख था तुम्हारे चेहरे पर उस दिन उस दिन तुमको खुद से शरमाते हुए देख रहा था आईना. तुम्हारा शरीर है यह यह तुम्हारा शरीर है मेरे शरीर में समाता हुआ आता हुआ आईने के सामने प्यार का मतलब बताता हुआ पूरे यकीन के साथ. यह तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में बदलता हुआ निकलता हुआ आस्तीन से बाहर चलता हुआ भूख और प्यास के खिलाफ़ यह तुम्हारी आँख है मेरी आँख में ढलती हुई मचलती हुई देखने को पूरी दुनिया संभलती हुई किसी

आधे चाँद की रात

जब कभी कहानियों में अपनी बेचैनी को शांत नहीं कर पाता तो कविताएँ लिखने बैठ जाता हूँ. ऐसी ही मनोदशा में लिखी हुई एक कविता प्रस्तुत- आधे चाँद की रात अधकटे सेब की भभकती गंध की तरह तुम्हारी महक की बातें करता अधबने मकानों के बीच तलाशता तुम्हारी छवि को बनाते-टूटते-बिखरते रंग और रेखाओं को गहरी स्याही में घोलता जाता, देर तक डूबती अधूरे सांझ की गहरी खाई में. अधकटे खेतों के विस्तार में- अधपकी फसलों को तेज घाम,पकाने को आतुर ओसकणों से झुके पौधों को झुलसाता जाता है- अपने तेज से. वैसे ही पकना चाहा था- दहकते अंगारों में अपने सपनों को बारिस-जल ने गला दिया आधे पके हिस्से जो गले न थे पानी की बौछार से आधे चाँद की रात में आधा कटा पहाड़ इस पहाड़ की आधी कटी विशाल दैत्याकार छाया घेरती जाती है, आधी बन पाई स्मृतियों को.

श्याम अविनाश की कहानी- बेसिन

श्याम अविनाश की कविताओं के बाद उनकी एक कहानी प्रस्तुत है. कहानी छोटी होने के बावजूद मानवीय जिजीविषा का व्यापक और गहन आख्यान है. बेसिन पति-पत्नी वहाँ पहुँचे तो दिन ढल गया था. बदली वाली शाम थी. शहर की एक सूनी गली में स्थित थी वह धर्मशाला. धर्मशाला अधेड़ थी और काफ़ी बड़ी. एक संवलाई सफेदी उसके बरामदों में जमी थी. रंग- रोगन छोड़ शाम जैसे सदा के लिए वहाँ वैधव्य काट रही हो. उन्हें पहली मंज़िल पर कोने का कमरा मिला. पति अरसे बीमार था. इलाज के लिए ही वे यहाँ आए थे. पहली दफे में वह पति तथा एक थैले को उपर ले आई. दूसरे फेरे में छोटा-सा बिस्तरबंद तथा अटैची. पति काफ़ी थका तथा हताश था. वह कमरे में तख्त पर बैठ गया. कोने में झाड़ू रखी थी. उसने पति तथा सामान को बाहर निकाल, झाड़ू लगाई. फिर तख्त पर व्होटी दरी और चादर बिछा, तकिया रख दिया. पति लेट गया. कमरे में पीछे का दरवाजा बंद था. उस पार क्या है- उसने सीटकनी खोली. पीछे एक बहुत कम इस्तेमाल होने वाला बरामदा था. बरामदे में एक ओर बेसिन लगा था. बेसिन के पास गई. बेसिन काफ़ी गंद था. अरसे से उसे साफ नहीं किया गया था. काले-काले छ
श्याम अविनाश की दो कविताएँ (श्याम अविनाश मेरे प्रिय कवियों में से हैं. शोर शराबे से दूर प. बंगाल के छोटे से जिले पुरुलिया में तपस्वी की तरह कविता और कहानी के सृजन में दशकों से शांत भाव से लीन हैं. श्याम अविनाश जी के सृजन-परिधि में वर्गीय चेतनता से सम्प्रिक्त-जीवन का कोलाज कैलाइडोस्कोपिक रूप से बनता रहता है. ) बस्ती की लड़की एक कहानी में वह आई थी मैनें बस्ती में मिली एक लड़की से ज़रा-सी मिट्टी निकल उसे बनाया था वह बड़ी उदास बनी थी जिस मर्द से उसका सांगा हुआ पाँच बच्चे उसके पहले से थे दर्द में डूबा रहा जीवन वह मार भी गई थी कहानी में अजीब दुख भरी मौत पर दूसरे दिन ही कहानी की वह लड़की आई और कहा क्या नहीं दे सकते मुझे दूसरा जीवन क्या जवाबदेता मैं कहानी के किरदार बीच बीच में आकर करते ही हैं परेशान लेकिन वह मानी नहीं, बार-बार आकर मांगती रही दूसरा जीवन् तंग आ मैने कहानी बदल दी वह बिल्कुल दूसरी सी हो गई कहानी भी हो गई साया और तब एक दिन बस्ती की वह लड़की आई जिसकी मिट्टी निकल मैंने बनाई थी कहानी की लड़की चुप बैठी रही कई देर, फिर बोली उसका जीवन तो बदल दिया पर इसमें क्या रक्खा है मेरा बादलो तब
(अनिरूद्ध नीरव नवगीत में एक सुपरिचित नाम है. इनके गीतों में प्रकृति और जीवन के सौन्दर्य का अनूठा स्थापत्य दिखाई देता है. उनके दो और नवगीत, उनके संग्रह "उड़ने की मुद्रा में" से प्रस्तुत है) कोई जलसा सारा जंगल कपड़े बदल रहा है कोई जलसा हफ्तों से चल रहा है इनके कपड़े वसंत ने सिले हैं शेड्स रंगों के सूर्य से मिले हैं फिट कुछ इतने बदन बदन खिले हैं मैं भी पहनू ये मन मचल रहा है मैं भी बढ़िया हरी कमीज़ ला कर उसको पहना अपने को कुछ लगा कर पेड़ देखे हँसने लगे ठठा कर कोई नकली असली में खल रहा है तब मैं जाना सुना भी था बड़ों से ये हरियाली मिलती न टेलरों से कोई रस है आता है जो जड़ों से मेरे नीचे मार्बल फिसल रहा है पिछला घर होता है अंतत: विदा घर से वह पिछला घर शीतल आशीष भरा एक कुआँ छोड़ कर चाह तो यही थी वह जाए पर उसका कोई हिस्सा ठहरे कुछ दिन चुने की परतों में बाबा माँ बाप रहें बच्चे लिखते रहें ककहरे कुछ दिन लेकिन वह समझ गया वक्त की नज़ाकत को सिमटा फिर हाथ पाँव मोड़कर चली कुछ दिनों तक पिछले घर की अगली यात्रा की तैयारी पुरज