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आधे चाँद की रात

जब कभी कहानियों में अपनी बेचैनी को शांत नहीं कर पाता तो कविताएँ लिखने बैठ जाता हूँ. ऐसी ही मनोदशा में लिखी हुई एक कविता प्रस्तुत-

आधे चाँद की रात

अधकटे सेब की भभकती गंध की तरह
तुम्हारी महक की बातें करता

अधबने मकानों के बीच तलाशता तुम्हारी छवि को
बनाते-टूटते-बिखरते रंग और रेखाओं को गहरी स्याही में
घोलता जाता, देर तक डूबती अधूरे सांझ की गहरी खाई में.

अधकटे खेतों के विस्तार में- अधपकी फसलों को
तेज घाम,पकाने को आतुर ओसकणों से झुके
पौधों को झुलसाता जाता है- अपने तेज से.
वैसे ही पकना चाहा था-
दहकते अंगारों में अपने सपनों को
बारिस-जल ने गला दिया
आधे पके हिस्से जो गले न थे
पानी की बौछार से
आधे चाँद की रात में
आधा कटा पहाड़

इस पहाड़ की आधी कटी विशाल दैत्याकार छाया
घेरती जाती है, आधी बन पाई स्मृतियों को.

टिप्पणियाँ

  1. पकना को पकाना कर लें और बारिस को बारिश. कविता ठीक है ... गीत नवगीत ..ते सब मृत विधाएँ हैं बंधु... इनको पढ़ना लिखना छापना सब समय की बर्बादी है. आपके लगाए नवगीत भी देखे, कविता के लिहाज से बेहद साधारण.. भावबोध भी औसत से कमतर शिल्प तो खैर सड़ा हुआ है ही. एक बात और नव लेखक के हिसाब से आपका खुद को पेश करने का अंदाज़ काफ़ी गुरुता दिखा रहा है. खुद पर कमेंट करने से बचें और विनम्रता से अपना लिखा सामने लाएँ. तब सीखने में मदद मिलेगी.

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