निराला जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है मेरा एक आलेख
गीता गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को|
प्रश्न यह उठता है कि निराला ने काव्य-कर्म क्यों अपनाया? इसलिए कि वेदना को रोकना था| निराला का जीवन अवध और बंगाल के महिषादल से शुरू होता है| यहाँ की प्राकृतिक सुषमा और संपदा जहाँ उनके ह्रदय में जीवन के प्रति रागात्मक संवेदनाओं का संचार करती है, तो इस धरती पर जीवन को गति देते जन की दारुण स्थिति, उनके भग्न-तन, रुग्ण-मन से जीवन को विषण्ण वन में रूपांतरित भी करती है| इस 'विषण्ण वन' में निराला गीत 'वेदना को रोकने को' गाने की इच्छा रखते हैं| जन-संकुल इस वन में कैसी वेदनाएँ हैं, जिन्हें रोकने को निराला गीत गाना चाहते हैं| उसकी अभिव्यक्ति 'बादल राग' कविता के-
रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष,
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर कांप रहे हैं
धनी, वज्र गर्जन से बादल|
त्रस्त नयन-मुख ढांप रहे हैं,
जीर्ण-बाहु, शीर्ण-शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर
जीर्ण-बाहु और शीर्ण-शरीर इन अधीर कृषकों की वेदना को रोकने का हेतु कौन हो सकता है? निराला ने उन्हें 'विप्लव के वीर' की पहचान दी है| इन विप्लव के वीरों को वे बताते हैं कि जीर्ण-बाहु कैसे हो गए वे किसान-
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
किसान-जन को चूस कर हाड़ मात्र करने वाले तबके से भी निराला व्यंग्य और टिकट ढंग से मुखातिब होते हैं-
अबे,
सुन बे गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता है केपिटलिस्ट,
तो, निराला न विप्लव के वीर को जगाने के लिये गीत गाने की इच्छा रखते हैं, बल्कि जन-वेदना को रोकने के लिए प्रतिरोध कि भाषा भी गढते हैं| न गढते हैं, बल्कि किस अदा से आंख तरेर कर प्रतिरोध करना है- यह भी सिखाने का काम अपनी कविताओं के द्वारा करते हैं| विप्लव की गर्जन इ किसे खुशी होती है? खुशी होती है-
शस्य अपार,
हिल हिल,
खिल खिल,
हाथ हिलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते|
शस्य अपार कौन? जन ही तो हैं, जिनकी शोभा विप्लव-रव बढती है|
विप्लव-रव को सुगठित और संगठित स्वर देने का काम निराला जिस समय विषण्ण वन में कर रहे थे, वह समय हिंदी काव्य-धारा का छायावाद का काल था| भारत के इतिहास में झांकें तो यह समय स्वतंत्रता और राष्ट्रीय-चेतना से युक्त आन्दोलनों का समय था| यह वह समय था, जब जन-आंदोलन और संघर्ष तीव्र से तीव्रतर हो रहा था| जबकि छायावाद के कवि एक साथ समवेत स्वर में 'रहस्यवाद और 'प्रतीकवाद' या 'चित्रभाषावाद' को ही एकांत ध्येय बनाकर चल रहे थे| 'चित्रभाषा' या अभिव्यंजन पर ही लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन दस लिये लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही काफी समझा गया| इस बंधे हुए क्षेत्र के भीतर चलने वाले काव्य ने छायावाद का नाम ग्रहण किया| तो छायावाद के दो अर्थ में रहस्य और प्रतीक के भेद हुए| आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पहले रहस्यवाद के कवि के रूप में महादेवी वर्मा को रखा है, तो पन्त, प्रसाद और निराला को प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली के कवियों में सम्मिलित किया है|
निराला के विप्लव-रव से जरा हटकर छायावाद के अन्य कवियों के स्वर पर दृष्टिपात करते चलते हैं| छायावाद के 'सिम्बालिज्म' के आधार-स्तंभ जयशंकर प्रसाद कि विशिष्ट कृति 'आंसू' को देखें| 'आंसू' में विपुला धरणी के दुखभार वहन का आकाशतरंग से पर्यवेक्षण इन पंक्तियों में देख जा सकता है-
अवकाश असीम दुखों से आकाशतरंग बनाता|
हँसता सा छाया पथ में नक्षत्र समाज दिखाता||
निचे विपुला धरणी है दुखभार वहन सा करती|
अपने खारे आंसू से करुणा सागर को भरती||
दुःखभार वहन करती चिर दग्धा वसुधा को निरख कर क्षोभ भरा विप्लव का रव उठाने के स्थान पर प्रेम वेदना की कल्याणी शीतल ज्वाला से मंगलमय,
उजाला देने की इच्छा से कवि अपनी शीतल ज्वाला से कहते हैं,
हे मेरी ज्वाला!
तेरे प्रकाश में चेतन संसार वेदना वाला,
मेरे समीप होता है पाकर कुछ करुण उजाला|
‘नियतिवाद और दुखवाद का विषण्ण स्वर तो यहाँ दिखाई देता है इस विषण्ण चेतना को दूर हटा कर मद्तन्द्रा, स्वप्न और असंज्ञा के दशा का आह्वान रहस्यवाद का स्वीकृत स्वर है| चिर दघ्ध दुखी वसुधा के लिए विप्लव-रव करने के बजाये नींद लाने की दवा लेकर आने को निशा से कवि कहता है—
चिर दघ्ध दुखी यह वसुधा आलोक मांगती, तब भी
तुम तुहिन बरस दो कन कन यह पगली सोये, अब भी
(क्रमश:)
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