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मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल

आज इस महान उर्दू शायर के जन्मदिवस पर पेश है एक ग़ज़ल जो दिल से निकल कर दिल को छु जाती है.............

हर एक बात पे कहते हो तुम के ‘ तू क्या है ‘ ?

तुम्ही कहो के यह अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है ?

न शोले में ए करिश्मा न बर्क में यह अदा

कोई बताओ की वोह शोख-ए-तुन्द खू क्या है ?

यह रश्क है की वो होता है हम सुखन तुमसे

वगरना खौफ-ए-बाद आमोजी-ए-अदू क्या है ?

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैरहन

हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफू क्या है ?

जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो अब राख, जुस्तजू क्या है ?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल

जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है ?

वोह चीज़ जिसके लिए हमको हो बहिश्त अज़ीज़

सिवाय बादा-ए-गुल-फाम-ए-मुश्कबू क्या है ?

पियूं शराब अगर खुम भी देख लूं दो चार

यह शीशा-ओ-कडाह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है ?

रही न ताकत-ए-गफ्तार, और अगर हो भी

तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है ?

बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता

वगरना शहर में ‘ ग़ालिब ‘ की आबरू क्या है ?

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