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मुक्तिबोध के ९३ वी जयंती के अवसर पर विशेष लेख


मुक्तिबोध: कथाकार व्यक्तित्व्

डॉ. नागेश्वर लाल

श्रीकांत वर्मा ने मुक्तिबोध की कहानियों के सन्दर्भ में प्रश्न पूछा है – “ क्या मुक्तिबोध के साहित्य का, जो महज साहित्य न रहकर मनुष्यता का दस्तावेज हो गया है, मूल्यांकन करने की जरुरत रह गयी है ?” प्रश्न के ढंग से बिल्कुल स्पष्ट है कि जरुरत नहीं है . फिर भी मुक्तिबोध की कविता का तथा नयी कविता, सर्जन-प्रक्रिया और अन्य विषयों के सम्बन्ध में उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों का मूल्यांकन किया जाता रहा है . उनकी कहानियों के मूल्यांकन के सम्बन्ध में श्रीकांत वर्मा का रुख समझ में नहीं आता . प्रतीत होता है कि दो धारणाओं के कारण उनका यह रुख है . वे समझते हैं कि मुक्तिबोध कि कहानियों में कुछ ऐसा है जो अटपटा लग सकता है; यहाँ तक कि उनमें कहानी की कमी भी है . शायद इसी कारण वे अपनी दूसरी धारणा प्रकट करते हुए सावधान करते हैं कि ‘मुक्तिबोध के साहित्य को उनके ही साहित्य की कसौटी के रूप में देखा जाये’ क्योंकि ‘उसमें इतनी प्रचंडता है कि उसपर परखने पर अपने अन्य गुणों के लिए महत्वपूर्ण दूसरों का साहित्य निश्चय टुच्चा नजर आयेगा .’ इस क्रम में यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि क्या मुक्तिबोध के साहित्य को, विशेष रूप से उनकी कहानियों को एक अलग-थलग ऐसा द्वीप मान लें जो अपने आप में कितना भी महत्वपूर्ण हो, उससे सार्थक संवाद की संभावना नहीं है जिससे कोई सर्जनात्मक उपलब्धि इस तरह आलोकित हो कि कहानी के आगे लिखे जाने के लिए कुछ नयी प्रेरणा मिल सके . फिर यह भी कि क्या उस मूल्यांकन से कहानी के सम्बन्ध में पहले से फ़ैली हुई कुछ धुंध छट सकती है.

प्रसंगवश, यह उल्लेख्य है कि लिखने के पर्याप्त अनुभव के बाद अज्ञेय को कहानी से मोहभंग हुआ और उन्होंने उसे लिखना छोडते हुए कहा कि उसमें सर्जनात्मक वैशिष्ट्य की उपलब्धि संभव नहीं है . क्या उनके सामने मुक्तिबोध की कहानियां रखकर के यह नहीं दिखलाया जा सकता कि वे किन्ही अनकहे कारणों से हताश मालूम पड़ते हैं. वस्तुत: एक विलक्षण मिथक यह रहा है और अभी भी है कि कहानी का कविता से सम्बन्ध होता है तो वह कहानी के लिए दुर्घटना का कारण होता है. परिणाम यह है कि दहनी कविता से जहाँ तक हो सके दूर रखी जाती है और खतरा जो होता है वह यह कि उसका अखबार से अधिक सरोकार दिखलाई पडता है. मुक्तिबोध की कहानियों पर गंभीरता से विचार करके उनके लिखे जाने के वैशिष्ट्य को सूक्ष्म विश्लेषण के सहारे ब्योरेवार सामने लाया जाता तो सम्भवत: यह स्थिति चिंताजनक हद तक नहीं गयी होती.

मुक्तिबोध के सर्जनात्मक व्यक्तित्व में कवि और कथाकार के गहरे अंतरंग सम्बन्ध का आश्चर्यजनक एहसास होता है. यह बड़े साहस कि और बहुत दूर तक सही समझ की बात है कि उन्होंने कहानी लिखते समय अपने कवि पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रखा और इसी तरह कविता लिखते समय अपने कथाकार पर भी प्रतिबन्ध नहीं रखा. वे अपनी कहानी ‘नयी जिंदगी’ के एक पात्र के सम्बन्ध में कहते हैं “उसकी सशक्त गद्यवाणी में से जिंदगी के अनुभव, अंतर्राष्ट्रीय राजनीती के दृश्य, स्थानीय और प्रांतीय हलचलों के नज़ारे कविता की भांति फूट पड़ते.” नि:संदेह यह किंचित परोक्ष रूप में उनके कथा लेखन का आत्मविश्लेषण माना जा सकता है. एक धारणा यह प्रचलित रही है कि कविता और कहानी के कथ्य में, सम्प्रेष्य अंतर्वस्तु में फर्क होता है. मुक्तिबोध कि कहानियों से यह धारणा सर्वथा निर्मूल होती हुई मालूम पड़ती है. उनकी कहानियां उनकी कविताओं से अंतर्व्याप्ति का,अंतरावालंबन का, कुछ और स्पष्ट रूप में कहें तो पारस्परिक साझेदारी का सम्बन्ध रखती हैं और यही कारण है कि दोनों में बहुत सारे अनुभव, बहुत सारे सन्दर्भ और बहुत सारे शब्द,थोड़े हेर-फेर के साथ सामान रूप में मिलते हैं. एक बात और, शायद यह भी समझा जाता है कि कहानी में बोल-चाल कि, रोजमर्रे कि भाषा का और कामचलाऊ अभिव्यक्ति का महत्त्व होता है किन्तु यह देखा जा सकता है कि मुक्तिबोध ने कहानियों में प्राय: उसी भाषा का, बिम्बों, रूपकों और प्रतीकों की उसी भाषा का प्रयोग किया है जिसका कविता में प्रयोग करते थे. इस तरह स्पष्ट रूप में अनुभव होता है कि वे कथा-लेखन कविता से ऊब कर या थक कर नहीं करते. वे शायद एक दूसरी विधा में भी अपने को जानने के लिए, जांचने के लिए और फिर भी उसी सार्थक अंतर्वस्तु के सम्प्रेषण के लिए कथा-लेखन करते हैं जिसके लिए कविता करते थे. इसमें संदेह नहीं कि वे दोनों का फर्क समझते थे इसीलिए उन्होंने बार-बार उल्लेख किया है कि कविता अपेक्षाकृत अधिक अमूर्त होती है.

मुक्तिबोध ने अपनी कहानियों में लोगों के, विशेष रूप से प्रबुद्ध लोगों के मानसिक तनावों और लगावों को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट संकेत किया है कि उनका अपना चुनाव क्या है. उन्होंने इस प्रक्रिया में व्यक्तियों के वैशिष्ट्य के सूक्ष्म चित्रण को अपना उद्देश्य नहीं बनाया है. कहीं-कहीं तो वास्तविक व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखते हुए भी वे ऐसी कीमियागिरी से काम लेते हैं कि वह जीवंत प्रतीक के रूप में परिणत हो कर व्यापक संभावना का सम्प्रेषण करने में समर्थ हो जाता है. हिरोशिमा पर जिस अमरीकी नौजवान ने अणुबम गिराया था वह क्लाडईथरली पाप बोध से आहत अशांत आत्मा को, जो हर देश के यहाँ तक कि भारत के भी कुछ विवेकवान लोगों में व्याप्त मानी जा सकती है, उत्कट रूप में प्रस्तुत करता है. पुन: उनकी एक कहानी के पात्र के सम्बन्ध में उनकी यह टिपण्णी उल्लेख्य है – ‘व्यक्ति उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं था, व्यक्तित्व अधिक, चाहे वह व्यक्तित्व मामूली ही हो.” इस प्रसंग मेंदेखा जा सकता है कि वे मसान घाट पर लकड़ी बेचने वाले डोम, एकलौती बच्ची के संबंध में स्वप्नशील दंपत्ति और सुशीला जैसी विधवा जिसका पुत्र नरेन्द्र उसकी पवित्रता का प्रश्न उठाता है, इन सबको इनकी मानसिक प्रक्रिया कि गहरायी में से उधाड़ते हुए वे इस तरह सामने लेट हिया की ये सभी अपने अपने व्यक्तित्व में, उसकी सीमाओं में होते हुए भी व्यापक संभावना को आलोकित करते है. फिर जहाँ प्रबुद्ध लोगों कि बात है वाहन तो मुक्तिबोध इतने प्रामाणिक मालुम पड़ते है कि स्तभ्ध रह जाना पड़ता है. वस्तुतः चमत्कार यह है कि वे हर कथा पत्र के साथ हि नहीं बिलकुल उसमे धड़कते हुए प्रतीत होते हैं-उनकी कोई भी कहानी ऐसी नहीं है जिसमे उनकी निजी उपस्थिति का प्रभावशाली एहसास न हो.

मुक्तिबोध घटनाओं के ब्योरे में बहुत कम दिलचस्पी रखते हैं और इस कारण असंभव नहीं कि जिसे सामान्य तौर पर कथा मानते हैं वह उनकी कहानियों में पर्याप्त न मिले. इससे यह नहीं होता कि उन कहानियों को दिलचस्पी न हो. उनमे कथा कि क्षति-पूर्ति सर्जन कि उन सघन प्रतिक्रियाओं से बहुत कुछ हो जाती है जो फंतासी, रूपक-कथा और चमत्कारपूर्ण तिलस्मनुमा प्रसंगों कि उद्भावना करती हैं. ‘क्लाडईथरली’ में रहस्यपूर्ण जेल, ‘पक्षी और दीमक’ में सौदागर और पक्षी का प्रसंग ‘ब्रह्मराक्षस’ का पूरा ढांचा यह सब अत्यंत कौतुहलपूर्ण विधान है. इसी तरह कहीं कटे हुए पेड़ का, कहीं कुत्ते का और कहीं सांप का प्रतीकात्मक प्रयोग ध्यान आकृष्ट करने में और फिर विस्तृत वास्तविकता को उजागर करने में समर्थ है. पर मुक्तिबोध सामान्य रूप में मानते थे कि साहित्य में सत्य नहीं, सत्य का प्रकाश होता है. शायद यही कारण है कि वे अपनी कविताओं में भी और उन्ही की तरह कहानियों में भी उस प्रकाश के प्रतिफलन में ही अधिक तत्पर मालूम पड़ते हैं. इससे प्रतीत होता है कि वे व्यक्ति या वस्तु को देखते हैं तो सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से उसके बाहरी ढांचे को बीन्धते हुए या भेदते हुए उसमे बिलकुल भीतर पैठ जाते हैं. उन्होंने अपने एक कथा पात्र के संबंध में कहा है कि “उनके व्यक्तित्व की बारीक़ से बारीक़ बातों को सहानुभूति के माईक्रोस्कोप से बड़ा करके देखने में उसे वाही आनंद मिलता था जो कि एक डॉक्टर को.” उनकी कहानियां उसी डॉक्टर के सहानुभूतिपूर्ण प्रतिवेदन के रूप में हैं. उस प्रतिवेदन से समकालीन संकट का, किसी सतह के संकट का नहीं, मानवात्मा के संकट का स्वरूप प्रतिबिंबित होता है. यह बहुत ध्यान देने की बात है कि उस डॉक्टर के संबंध में टिपण्णी है कि वह ‘दुनिया की पेटेंट दवाईयों के चक्कर’ में नहीं पडता था. यह अकारण टिपण्णी नहीं है. इसका एक संकेत तो यह है कि मुक्तिबोध औसत अनुभवों से बचाव चाहते थे. एक दूसरा यह भी संकेत हो सकता हिया कि वे संकट के समाधान के लिए बने-बनाये चालू नुस्खों से, चाहे वे इस विचारधारा के हों या उसके, कोई आशा नहीं रखते थे. विवेक को दबा देना, ज्ञान का सुख सुविधा के लिए, सम्मान के लिए सौदा करना, इससे बचने पर भी ज्ञान के बावजूद अकर्मण्य रहना- ये सब संकट के ऐसे गहरे कारण हैं जिन्हें नि:संदेह किसी सरलीकरण से न समझा जा सकता है, न मिटाया जा सकता है. फिर निर्धन लोगों से, जो अपने देश में, बहुत अधिक हैं, लगाव के बदले दुराव तो मन बदले बिना संभव ही नहीं. इस तरह मुक्तिबोध के कथाकार ने कहानी की प्रचलित विधा के सामने एक नया सर्जनात्मक मार्ग खोलना चाहा है. यह स्पष्ट है कि इस मार्ग का सुविधा से, यहाँ तक कि लिखने कि सुविधा से कोई संबंध नहीं है. कविता लिखने के लिए जिस एकाग्रता की, केन्द्रण कि और शब्द को विशिष्ट अर्थ-छाया देने के लिए उन्मेषशील कल्पना की जरुरत होती है वही इन कहानियों के लिए भी जरुरी है. कहानी को लोकप्रिय विद्या के विरुद्ध के गुण/अवगुण से बहुत कुछ मुक्ति दिलाते हुए प्रबुद्ध पाठकों के लिए उसे गंभीर और रोचक वस्तु बनाने का जो काम मुक्तिबोध ने किया है वह प्राय: अपूर्व है. उन्होंने कहानियां बहुत कम लिखी हैं और फिर भी उन कहानियों में प्रस्तुतीकरण के स्वरूप और ब्योरों के विधान में इतनी विविधता है कि उन्हें गुणात्मक तौर पर अपर्याप्त नहीं माना जा सकता. उनकी एक लंबी रचना, वह कहानी हो कि लघु उपन्यास या कि रिपोर्ताज ही क्यों न हो प्रबुद्ध समुदाय की अंतर्विरोधपूर्ण प्रकृति को कुछ विस्तार से बड़े प्रामाणिक रूप में प्रखरता के साथ संप्रेषित करने में समर्थ है. उनके कथा-लेखन में वस्तु के, व्यक्ति के चित्रण के जो सन्दर्भ हैं वे यथार्थ में उनके द्वारा पर्यवेक्षण की सूक्ष्मता और चुनाव के विवेक के साक्ष्य मने जा सकते हैं. पर यह तो है ही कि विरले किसी अवसर पर उनके वर्णन या चित्रण एकायामी मालूम पड़ते है. अंतत: प्रतीत होता है कि वे अपनी ऊर्जा और ऊष्मा से कथा- सन्दर्भों को अद्भूत रूप से प्रदीप्त कर देते हैं.

मुक्तिबोध के कथा-लेखन की विशेषताए नयी कविताऔर कहानी के कुछ लेखकों के प्रयोगों स्फुट रूप में दिखलाई पड़ सकती है. शायद उन विशेषताओं में से कुछ का सरलीकरण करते हुए थोड़े क्रीडा-भाव से प्रस्तुतीकरण के सहारे हरिशंकर परसाई जिनसे मुक्तिबोध के कथाकर का सघन संबंध रहा है, कहानी को पुन: लोकप्रिय और स्वरूप में नहीं तो उद्देश्य में गंभीर बना देते हैं. सामान्य तौर पर सर्जनात्मक संभावना की खोज में उतनी दिलचस्पी नहीं ली गयी आलोचकों द्वारा भी कहानीकरो द्वारा भी और उनके द्वारा भी जो प्रतिमानों के केंद्र मैं मुक्तिबोध को देखते थे. ली गई होती तो यह पहचाना जा चूका होता है कि कविता मैं महानुभाव के सम्प्रेषण के लिए वस्तुगत सह सबंध का जो विधान किया जाता है, कहानी कि सर्जनात्मक सार्थकता भी उसी ढंग से प्रस्तुत होने मैं है.

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डॉ. नागेश्वर लाल : हिंदी की नई कविता के प्रखर आलोचक, बहुत ही प्रभावशाली वक्ता . नयी कविता आन्दोलन के दौर में इलाहाबाद में तीन दिनों तक चलने वाली संगोष्ठी में उन्होंने ही पहली बार कविता के नए प्रतिमानों कि चर्चा की थी. उसके बहुत दिनों के बाद डॉ. नामवरसिंह कि प्रसिद्ध किताब कविता के नए प्रतिमान आई.

पटना विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नाकोत्तर की उपाधि लेने के उपरांत उन्होंने कविता के बिम्बविधान पर शोध कार्य करके पी.एच.डी. की उपाधि ली. डॉ. नागेश्वर लाल, सुप्रसिद्ध साहित्यकार नलिन विलोचन शर्मा के योग्य शिष्य थे. काफी दिनों तक रांची में प्राध्यापक रहे .

डॉ. नागेश्वर का जन्म बिहार के आरा जिले के बगेन नामक ग्राम में हुआ था. असंयमित जीवन शैली के कारण इस प्रतिभावान आलोचक का कुछ वर्षों पहले निधन हो गया.

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