सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ओ.एन.वी. कुरुप की कविताएँ


ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित ओ.एन.वी. कुरुप मलयालम कविता के वरिष्ठ, सर्वाधिक संवेदनशील, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त क्रांतिकारी जनकवि हैं| शब्द और जन की रागात्मकता के अनुपम गायक, जन परम्परा और और लोक-संपदा के रक्षक,जनकवि की कविताएँ बीसवीं व इक्कीसवीं सदी के दुख, संघर्ष, विनाश और निर्माण की कविताएँ हैं| एक जीता-जागता सच्चा जन-इतिहास; सच्ची आत्मभिव्यक्ति जनवाणी के वेग और तेज से प्रेरित और निर्मित उनकी कविताएँ प्रस्तुत हैं|

फीनिक्स

चिता से फिर से जी उठूंगा
पंख फूलों की तरह खोलता उठूंगा|

मैं एक दिव्याग्ञि का कण हो
किसी मरूभु के गर्भ में प्रविष्ठ हुआ.
एक मूँगे के बीज को दो पत्तियों की तरह
स्वर्णपंख डोलता मैं ऊपर उठता गया
ज्वालामुख खोल जगे हिरण्यमय नाल की तरह
अग्नि से अंकुरित हुआ|

निदाघपुरुष एक व्याघ की तरह
तीर मारता, रक्त का प्यासा बन
जिस धरती पर चल रहा है
उसमें मैं छाया व प्रकाश फैलाता उड़ता हूँ|

क्या जगह-जगह हरे बीज उगे ?
रेत के पाट में क्या फूल खिले ?
क्या मरुस्थली सूर्य-महाराज की तरफ
उठता स्वर्णमुख राग बन ज्वलित हो उठी ?

मैं उन दलों से उठता उन्मत्त मधु शलभ होकर जब उड़ूँ
गाता उड़ूँ,
दोनों पंखों से अपारता को नापने की
कठोर साधना जारी रखूं तब
मैं झुलस जाउँगा|
सारी पंखों की बत्तियाँ जलेंगी-मृत्यु के हाथ में
अनंतता की आरती करता
दीपदान बनूंगा|

मृत पक्षी के चिताकण लेकर आँसू टपकाते हे काल !
मैं चिता से फिर से जी उठूंगा
अपने पंख फूलों की तरह खोलता उठूंगा|

थोड़े से प्यार के अक्षर

एक चिड़िया अपने पर से
एक पंख मेरे सामने दल उड़ गई
"यह तुम ले लो|"
कदली कुसुम के पौधे ने
अपने फल का दाना
मेरी ओर बढ़ाया और कहा-
"तुम इसका रंग ले लो|"
एक भूर्ज वृक्ष उस कहा-
"मेरी चिकनी छाल का
एक छोटा सा टुकड़ा लो !"
मैं अंजाने पूछ बैठा-
"बोलो ! मैं कवि तुम्हे क्या लिख दूं ?"
जवाब मिला-
"लिख छोड़ना- थोड़े से प्यार के अक्षर
हमारे लिए|"
आख़िरी पक्षी भी जाने कौन सा तीर खाकर
मेरे हृदय के नभ-तल पर
तड़प-तडपकर गिर पड़ा !
इस पाठ के किनारे
कदली-कुसुम के पौधे का
स्थान भी विस्मृति में लीं हो गया !
प्रिय भूर्ज वृक्ष भी
किसी पूरण के दीमक खाए
किसी पृष्ठ पर गल गया !
अब मेरे पास सोने का पंख कहाँ ?
स्याही कहाँ ? कागज कहाँ ?
अब मैं किस के लिए क्या लिख छोड़ूं ?
कहीं से मुझे
उत्तर सुनाई दे रहा है-
इतना सा प्यार देकर
सब कुछ फिर से पा सकते हो|

अनुवाद- डाक्टर एन. ई. विश्वनाथ अय्यर

साम्य पुस्तिका १२ से साभार

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

संत रविदास जी की रचनाएं

संत रविदास जी की जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है उनकी दो रचनाएं....... #1 अखि लखि लै नहीं का कहि पंडित , कोई न कहै समझाई। अबरन बरन रूप नहीं जाके , सु कहाँ ल्यौ लाइ समाई।। टेक।। चंद सूर नहीं राति दिवस नहीं , धरनि अकास न भाई। करम अकरम नहीं सुभ असुभ नहीं , का कहि देहु बड़ाई।।१।। सीत बाइ उश्न नहीं सरवत , कांम कुटिल नहीं होई। जोग न भोग रोग नहीं जाकै , कहौ नांव सति सोई।।२।। निरंजन निराकार निरलेपहि , निरबिकार निरासी। काम कुटिल ताही कहि गावत , हर हर आवै हासी।।३।। गगन धूर धूसर नहीं जाकै , पवन पूर नहीं पांनी। गुन बिगुन कहियत नहीं जाकै , कहौ तुम्ह बात सयांनीं।।४।। याही सूँ तुम्ह जोग कहते हौ , जब लग आस की पासी। छूटै तब हीं जब मिलै एक ही , भणै रैदास उदासी।।५।। #2 ऐसौ कछु अनभै कहत न आवै। साहिब मेरौ मिलै तौ को बिगरावै।। टेक।। सब मैं हरि हैं हरि मैं सब हैं , हरि आपनपौ जिनि जांनां। अपनी आप साखि नहीं दूसर , जांननहार समांनां।।१।। बाजीगर सूँ रहनि रही जै , बाजी का भरम इब जांनं। बाजी झूठ साच बाजीगर , जा...
  [हिंदी कविता में विविधता और सर्जनात्मकता की बहुलता में एक अनूठी और आदिम भावबोध की कविताओं का स्त्रीवाची स्वर विश्वासी एक्का की कविताओं में दीखता है।प्रकृति का सरल सौंदर्य, प्रकृति के साथ  सह-अनुभति , और सादा जीवन का सादगी पूरित दुःख और सुख को सीधी भाषा में कहने का सधे ढंग से अभिव्यक्त करने की विश्वासी क्षमता ने मध्यवर्गीय शहरी चेतना सम्पन्न कविताओं के दौर में अलग और विशिष्ट बनाता है। भावयति में उनकी कविताएँ पहली बार लगा रहे हैं।]                                                                          

पुण्य स्मरण

           सरगुजिहा बेटा : अनिरुद्ध नीरव      अनिरुद्ध नीरव छंद में जीने वाले कवि हैं। उन्होंने कविताओं में सदा ही प्रयोगशील रहने के लिए भावों और सम्वेदनाओं का अतिक्रमण किया, पर छंद पर ही अपने समूचे प्रयोग को साधा-परखा और निरखा।     दूसरी बात जो अनिरुद्ध जी को खास बनाती है, वह है उनकी कविताओं में स्थानीयता का पुट। इस स्थानीयता को वैश्विक फलक पे रचने में अनिरुद्ध नीरव अपने छन्दबद्ध अनुशासन में रहते हिन्दी साहित्य के अनुपम कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के समीप दीखते हैं,यदि रेणु सिरचन को सिरजते हैं तो नीरव जी के यहाँ अधीन साय का घर है।लालपान की बेगम के सौंदर्य और स्वाभिमान की छवि उनके नवगीत फुलबसिया में महमह करती दीखती है। जिस समय में फणीश्वरनाथ रेणु अपने अंचल के भूगोल में विविध सामाजिक यथार्थों की परती में कथाओं की फसल लहलहा रहे थे,उसी समय में अनिरुद्ध नीरव सरगुजांचल की पथरीली भूमि पर नवगीतों में इस दूरस्थ आदिम अंचल के सुख, दुःख, नाद, और लास और सौंदर्य का बीज रोप रहे थे।         आपने अगर उनके हाल ही में प्रकाशित ...