मुक्तिबोध की कविता शून्य
मुक्तिबोध की कविताओं में सूक्ष्म और स्फूल दोनो के चित्रण में एक अद्भुत स्पष्टता होती है सब कुछ जैसे हम अनुभूत कर लेते हैं. सूक्ष्म और स्फूल वैज्ञानिक और रूमानी,और नपे तुले का अद्भूत और विचित्र योग मिलता है. मुक्तिबोध की शक्तिशाली मानवतावादी रोमानियत में अमूर्त का विस्तृत मूर्तिकरण स्वप्न कथाओं में व्यक्त होता है. ११ सितंबर के दिन उनके पुन्यस्मरण के रूप में उनकी कविता शून्य प्रस्तुत है..................
भीतर जो शून्य है
उसका एक जबड़ा है
जबड़े में माँस काट खाने के दाँत हैं ;
उनको खा जायेंगे,
तुम को खा जायेंगे ।
भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह
हमारा स्वभाव है,
जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में
ख़ून का तालाब है।
ऐसा वह शून्य है
एकदम काला है,बर्बर है,नग्न है
विहीन है, न्यून है
अपने में मग्न है ।
उसको मैं उत्तेजित
शब्दों और कार्यों से
बिखेरता रहता हूँ
बाँटता फिरता हूँ ।
मेरा जो रास्ता काटने आते हैं,
मुझसे मिले घावों में
वही शून्य पाते हैं ।
उसे बढ़ाते हैं,फैलाते हैं,
और-और लोगों में बाँटते बिखेरते,
शून्यों की संतानें उभारते।
बहुत टिकाऊ हैं,
शून्य उपजाऊ है ।
जगह-जगह करवत,कटार और दर्रात,
उगाता-बढ़ाता है
मांस काट खाने के दाँत।
इसी लिए जहाँ देखो वहाँ
ख़ूब मच रही है,ख़ूब ठन रही है,
मौत अब नये-नये बच्चे जन रही है।
जगह-जगह दाँतदार भूल,
हथियार-बन्द ग़लती है,
जिन्हें देख,दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।
सुंदर प्रस्तुति.
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