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शलभ श्रीराम सिंह की दो कविताएँ

शलभ श्रीराम सिंह के बारे में बाबा नागार्जुन का अभिमत है कि, "शलभ से हिन्दी कविता का एक नया गोत्र प्रारंभ होता है. उन्हें किसी मठ में शरण लेने की आवश्यकता नहीं है."
शलभ श्रीराम सिंह की कविताओं को लेकर डॉ. रामकृपाल पांडेय का कहना है कि, " प्यार का जितना सूक्ष्म, व्यापक, स्वस्थ और अकुंठ चित्रण शलभ ने किया है, सात्ोत्तरी कवियों में शायद किसी अन्य ने किया हो."

उस दिन

ईख की सूखी पत्ती का
एक टुकड़ा था बालों में
पीछे की तरफ.

ज़रूरत से ज़्यादह बढ़ गई थी
गालो की लाली.

आईने में
अपने चेहरे की सहजता
सहेज रही थीं तुम
खड़ी-खड़ी.

सब कुछ देकर चली आईं थीं
किसी को
चुपचाप.

सब कुछ देकर
सब कुछ पाने का सुख था
तुम्हारे चेहरे पर उस दिन

उस दिन
तुमको खुद से शरमाते हुए
देख रहा था आईना.

तुम्हारा शरीर है यह

यह तुम्हारा शरीर है मेरे शरीर में समाता हुआ
आता हुआ आईने के सामने
प्यार का मतलब बताता हुआ पूरे यकीन के साथ.

यह तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में बदलता हुआ
निकलता हुआ आस्तीन से बाहर
चलता हुआ भूख और प्यास के खिलाफ़
यह तुम्हारी आँख है मेरी आँख में ढलती हुई
मचलती हुई देखने को पूरी दुनिया
संभलती हुई किसी भी दृश्य का मुकाबला करने के लिए

यह तुम्हारा मन है मेरे मन को जागता हुआ
बजाता हुआ मेरी उम्मीद को बाँसुरी की तरह
सजाता हुआ बच्चे की तरह मेरे एक-एक सपने को.
तुम्हारा शरीर है यह मेरे शरीर में समाता हुआ

टिप्पणियाँ

  1. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  2. दोनों ही कवितायेँ बहुत सुन्दर हैं.

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