श्याम अविनाश की कविताओं के बाद उनकी एक कहानी प्रस्तुत है. कहानी छोटी होने के बावजूद मानवीय जिजीविषा का व्यापक और गहन आख्यान है.
बेसिन
पति-पत्नी वहाँ पहुँचे तो दिन ढल गया था. बदली वाली शाम थी. शहर की एक सूनी गली में स्थित थी वह धर्मशाला. धर्मशाला अधेड़ थी और काफ़ी बड़ी. एक संवलाई सफेदी उसके बरामदों में जमी थी. रंग- रोगन छोड़ शाम जैसे सदा के लिए वहाँ वैधव्य काट रही हो.
उन्हें पहली मंज़िल पर कोने का कमरा मिला. पति अरसे बीमार था. इलाज के लिए ही वे यहाँ आए थे.
पहली दफे में वह पति तथा एक थैले को उपर ले आई. दूसरे फेरे में छोटा-सा बिस्तरबंद तथा अटैची. पति काफ़ी थका तथा हताश था. वह कमरे में तख्त पर बैठ गया. कोने में झाड़ू रखी थी. उसने पति तथा सामान को बाहर निकाल, झाड़ू लगाई. फिर तख्त पर व्होटी दरी और चादर बिछा, तकिया रख दिया. पति लेट गया. कमरे में पीछे का दरवाजा बंद था. उस पार क्या है- उसने सीटकनी खोली. पीछे एक बहुत कम इस्तेमाल होने वाला बरामदा था.
बरामदे में एक ओर बेसिन लगा था. बेसिन के पास गई. बेसिन काफ़ी गंद था. अरसे से उसे साफ नहीं किया गया था. काले-काले छींटे जंगाए थे. उसने नल खोला. पानी आ रहा था. उसने नल बंद कर दिया. पुराना कपड़ा तो वे लाए नहीं. वह वापस कमरे में आई. पति ने आँखे मूंद रखी थीं. उसने खाना बाँध कर लाई पोटली का कपड़ा निकाल लिया. थोड़ा-सा साबुन का चूरा लिया और जाकर बेसिन साफ करने लगी. उसने रगड़-रगड़कर बेसिन को धोया. गंदी चीज़ साफ होने पर ज़्यादा साफ लगती है. बेसिन का चेहरा चमकने लगा. उसने ठहर कर बेसिन को देखा,वह मुस्कुराई- बेसिन भी. उसे बेसिन पर लाड आया. मुस्कुराते बेसिन में उसने अच्छी तरह मुँह धोया. बेसिन से एक अपनापा-सा जुड़ गया. उसने नल खोल चुल्लू में पानी भर-भर कर एक बार फिर बेसिन को नहला दिया. इस अपरिचित शहर में उसे लगा- बेसिन उसकी ओर है.
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